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प्र꣢꣫ वाच꣣मि꣡न्दु꣢रिष्यति समु꣣द्र꣡स्याधि꣢꣯ वि꣣ष्ट꣡पि꣢ । जि꣢न्व꣣न्को꣡शं꣢ मधु꣣श्चु꣡त꣢म् ॥१२०१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्र वाचमिन्दुरिष्यति समुद्रस्याधि विष्टपि । जिन्वन्कोशं मधुश्चुतम् ॥१२०१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र꣢ । वा꣡च꣢꣯म् । इ꣡न्दुः꣢꣯ । इ꣣ष्यति । समुद्र꣡स्य꣢ । स꣣म् । उद्र꣡स्य꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । वि꣣ष्ट꣡पि꣢ । जि꣡न्व꣢꣯न् । को꣡श꣢꣯म् । म꣣धुश्चु꣡त꣢म् । म꣣धु । श्चु꣡त꣢꣯म् ॥१२०१॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1201 | (कौथोम) 5 » 1 » 4 » 6 | (रानायाणीय) 9 » 3 » 1 » 6


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अब परमात्मा की कृपा का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(इन्दुः) रस का भण्डार परमात्मा अपने (मधुश्चुतम्) मधुस्रावी (कोशम्) आनन्द-रस के कोश को (समुद्रस्य) जीवात्मरूप समुद्र के (विष्टपि अधि) धरातल पर (जिन्वन्) प्रेरित करता हुआ (वाचम्) उपदेशरूप वाणी को (प्र इष्यति) देता है ॥६॥ यहाँ शब्दशक्तिमूलक ध्वनि से यह ध्वनित होता है कि जैसे चन्द्रमा (इन्दु) समुद्र के धरातल पर अपने चाँदनीरूप मधुस्रावी कोश को प्रेरित करता है ॥६॥

भावार्थभाषाः -

उपासकों को जगदीश्वर निरन्तर आनन्द-रस की धाराओं से सींचता रहता है और उन्हें दिव्य सन्देश देता रहता है ॥६॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मनः कृपामाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(इन्दुः) रसागारः परमात्मा (मधुश्चुतम्) मधुस्राविणम् (कोशम्) स्वकीयम् आनन्दरसकोशम् (समुद्रस्य) जीवात्मसमुद्रस्य (विष्टपि अधि) धरातले (जिन्वन्) गमयन् (वाचम्) उपदेशगिरम् (प्र इष्यति) प्रेरयति। [इष गतौ दिवादिः] ॥६॥ अत्र यथा इन्दुश्चन्द्रः समुद्रस्य धरातले स्वकीयं चन्द्रिकारूपं मधुश्चुतं कोशं जिन्वति प्रेरयतीति शब्दशक्तिमूलेन ध्वनिना ध्वन्यते ॥६॥

भावार्थभाषाः -

उपासकान् जगदीश्वरो निरन्तरमानन्दरसधाराभिः सिञ्चति, तेभ्यो दिव्यसन्देशं च प्रयच्छति ॥६॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१२।६।


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