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य꣡स्ते꣢ नू꣣न꣡ꣳ श꣢तक्रत꣣वि꣡न्द्र꣢ द्यु꣣म्नि꣡त꣢मो꣣ म꣡दः꣢ । ते꣡न꣢ नू꣣नं꣡ मदे꣢꣯ मदेः ॥११६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

यस्ते नूनꣳ शतक्रतविन्द्र द्युम्नितमो मदः । तेन नूनं मदे मदेः ॥११६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः꣢ । ते꣣ । नून꣢म् । श꣣तक्रतो । शत । क्रतो । इ꣡न्द्र꣢꣯ । द्यु꣣म्नि꣡त꣢मः । म꣡दः꣢꣯ । ते꣡न꣢꣯ । नू꣣न꣢म् । म꣡दे꣢꣯ । म꣣देः ॥११६॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 116 | (कौथोम) 2 » 1 » 3 » 2 | (रानायाणीय) 2 » 1 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में इन्द्र परमात्मा से याचना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (शतक्रतो) बहुत प्रज्ञाओं, कर्मों, यज्ञों और संकल्पोंवाले (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली परमात्मन् ! (यः) जो (ते) आपका (नूनम्) निश्चय ही (द्युम्नितमः) सबसे अधिक यशोमय (मदः) आनन्द है, (तेन) उससे (नूनम्) आज हमें भी (मदे) आनन्द में (मदेः) मग्न कर दीजिए ॥२॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मा का आनन्द-रस जिन्होंने चख लिया है, वे उस रस की कीर्ति को गाते नहीं थकते। वह रस-रूप है यह तत्त्ववेत्ताओं का अनुभव है। सबको चाहिए कि उसके रस को प्राप्त कर अपने आपको धन्य करें ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथेन्द्रः परमात्मा प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (शतक्रतो) बहुप्रज्ञ, बहुकर्मन्, बहुयज्ञ, बहुसंकल्प। अत्र शतशब्दो बहुत्वसूचकः। शतमिति बहुनाम। निघं० ३।१। (इन्द्र) परमैश्वर्यशालिन् परमात्मन् ! (यः ते) तव (नूनम्) निश्चयेन (द्युम्नितमः) यशस्वितमः। द्युम्नं द्योततेः, यशो वाऽन्नं वा। निरु० ५।५। द्युम्नमस्यास्तीति द्युम्नी। अतिशयेन द्युम्नी द्युम्नितमः। (मदः) आनन्दः, अस्ति, (तेन) मदेन आनन्देन (नूनम्) अद्य, अस्मानपि (मदे) आनन्दे (मदेः) मदयेः, मग्नान् कुरु। मदी हर्षग्लेपनयोः, भ्वादिः, लिङि रूपम्। अन्तर्भावितण्यर्थः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मन आनन्दरसो यैरास्वादितस्ते तत्कीर्तिं गायन्तो न श्राम्यन्ति। रसो वै सः इति हि तत्त्वविदामनुभवः। सर्वैस्तद्रसं प्राप्य स्वात्मा धन्यतां नेयः ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।९२।१६, ऋषिः श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः।


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