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पु꣣ना꣡ता꣢ दक्ष꣣सा꣡ध꣢नं꣣ य꣢था꣣ श꣡र्धा꣢य वी꣣त꣡ये꣢ । य꣡था꣢ मि꣣त्रा꣢य꣣ व꣡रु꣢णाय꣣ श꣡न्त꣢मम् ॥११५९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पुनाता दक्षसाधनं यथा शर्धाय वीतये । यथा मित्राय वरुणाय शन्तमम् ॥११५९॥
पुना꣡त꣢ । द꣣क्षसा꣡ध꣢नम् । द꣣क्ष । सा꣡ध꣢꣯नम् । य꣡था꣢꣯ । श꣡र्धा꣢꣯य । वी꣣त꣡ये꣢ । य꣡था꣢꣯ । मि꣣त्रा꣡य꣢ । मि꣣ । त्रा꣡य꣢꣯ । व꣡रु꣢꣯णाय । श꣡न्त꣢꣯मम् ॥११५९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर वही विषय है।
हे साथियो ! तुम (दक्षसाधनम्) दक्षता के साधक सोम नामक जीवात्मा को (पुनात) पवित्र करो, (यथा) जिससे वह (शर्धाय) उत्साह के लिए और (वीतये) प्रगति के लिए हो अर्थात् उत्साहित होकर प्रगति कर सके और (यथा) जिससे (मित्राय) मित्र मन के लिए और (वरुणाय) दोषनिवारक प्राण के लिए (शन्तमम्) शान्तिकारक हो ॥३॥
जीवात्मा के पवित्र हो जाने पर शरीरस्थ मन, बुद्धि, प्राण आदि सब पवित्र हो जाते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
हे सखायः ! यूयम् (दक्षसाधनम्२) दक्षतायाः साधयितारम् सोमं जीवात्मानम् (पुनात) पुनीत। [पूञ् पवने क्र्यादिः, लोटि तप्तनप्तनथनाश्च। अ० ७।१।४५ इत्यनेन तस्य तबादेशे पित्वाद् ईत्वाभावः।] (यथा) येन, सः (शर्धाय) उत्साहाय (वीतये) प्रगतये च स्यात्, (यथा) येन च (मित्राय) मनसे (वरुणाय) दोषनिवारकाय प्राणाय च (शन्तमम्) शान्तिकरं यथा तथा भवेत् ॥३॥
जीवात्मनि पवित्रीभूते सति देहस्थानि मनोबुद्धिप्राणादीनि सर्वाण्यपि पवित्राणि जायन्ते ॥३॥
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