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आ꣢ म꣣न्द्र꣡मा वरे꣢꣯ण्य꣣मा꣢꣫ विप्र꣣मा꣡ म꣢नी꣣षि꣡ण꣢म् । पा꣢न्त꣣मा꣡ पु꣢रु꣣स्पृ꣡ह꣢म् ॥११३८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

आ मन्द्रमा वरेण्यमा विप्रमा मनीषिणम् । पान्तमा पुरुस्पृहम् ॥११३८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ । म꣣न्द्र꣢म् । आ । व꣡रे꣢꣯ण्यम् । आ । वि꣡प्र꣢꣯म् । वि । प्र꣣म् । आ꣢ । म꣣नीषि꣡ण꣢म् । पा꣡न्त꣢꣯म् । आ । पु꣣रुस्पृ꣡ह꣢म् । पु꣣रु । स्पृ꣡ह꣢꣯म् ॥११३८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1138 | (कौथोम) 4 » 2 » 2 » 11 | (रानायाणीय) 8 » 2 » 1 » 11


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर परमात्मा और आचार्य का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे सोम अर्थात् ज्ञान-रस वा ब्रह्मानन्द-रस के प्रेरक परमात्मन् वा आचार्य ! हम (मन्द्रम्) आनन्दप्रदायक आपको (आ) वरते हैं, (वरेण्यम्) वरणीय आपको (आ) वरते हैं, (विप्रम्) विशेष रूप से धन-धान्य-विद्या-आरोग्य आदियों से पूर्ण करनेवाले आपको (आ) वरते हैं, (मनीषिणाम्) मनीषी आपको (आ) वरते हैं, (पान्तम्) विघ्न, विपत्ति, अविद्या आदि से रक्षा करनेवाले और (पुरुस्पृहम्) बहुत स्पृहणीय आपको (आ) वरते हैं। [यहाँ आ की बार-बार आवृत्ति की गयी है। उसके साथ ‘वृणीमहे’ पद पूर्वमन्त्र से आ जाता है] ॥११॥

भावार्थभाषाः -

असंख्य गुणों से विभूषित, शुभ गुण-कर्म-स्वभाववाले, विपत्तियों को दूर करनेवाले, सम्पत्तिप्रदाता, विद्या-आनन्द आदि प्राप्त करानेवाले, सरस सोम-नामक परमात्मा और आचार्य को वर कर, उपासना और सत्कार करके अपरिमित लाभ सबको प्राप्त करने चाहिएँ ॥११॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनराचार्यविषयं परमात्मविषयं चाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे सोम ज्ञानरसस्य ब्रह्मानन्दरसस्य वा प्रेरक परमात्मन् आचार्य वा ! वयम् (मन्द्रम्) आनन्दकरं त्वाम् (आ) आवृणीमहे, (वरेण्यम्) वरणीयं त्वाम् (आ) आवृणीमहे, (विप्रम्) विशेषेण प्राति धनधान्यविद्यारोग्यादिभिः पूरयतीति तादृशं त्वाम् (आ) आवृणीमहे, (मनीषिणम्) मेधाविनं प्राज्ञं त्वाम् (आ) आवृणीमहे, (पान्तम्) विघ्नविपद्विद्यादिभ्यो रक्षकम् (पुरुस्पृहम्) बहुस्पृहणीयं च त्वाम् (आ) आवृणीमहे। [आ इत्यस्यावृत्तौ वृणीमहे इति पूर्वमन्त्रादाकृष्यते] ॥११॥

भावार्थभाषाः -

असंख्यगुणगणविभूषितं शुभगुणकर्मस्वभावं विपत्तिविदारकं संपत्प्रदातारं विद्यानन्दादिप्रदं सरसं सोमं परमात्मानमाचार्यं च वृत्वा समुपास्य सत्कृत्य चापरिमिता लाभाः सर्वैः प्राप्तव्याः ॥११॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६५।२९।


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