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आ꣡ ते꣢ अग्न इधीमहि द्यु꣣म꣡न्तं꣢ देवा꣣ज꣡र꣢म् । यु꣢द्ध꣣ स्या꣢ ते꣣ प꣡नी꣢यसी स꣣मि꣢द्दी꣣द꣡य꣢ति꣣ द्य꣡वीष꣢꣯ꣳ स्तो꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣡ भ꣢र ॥१०२२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ ते अग्न इधीमहि द्युमन्तं देवाजरम् । युद्ध स्या ते पनीयसी समिद्दीदयति द्यवीषꣳ स्तोतृभ्य आ भर ॥१०२२॥
आ꣢ । ते꣣ । अग्ने । इधीमहि । द्युम꣡न्त꣢म् । दे꣣व । अज꣡र꣢म् । अ꣣ । ज꣡र꣢꣯म् । यत् । ह꣣ । स्या꣢ । ते꣣ । प꣡नी꣢꣯यसी । स꣣मि꣢त् । स꣣म् । इ꣢त् । दी꣣द꣡य꣢ति । द्य꣡वि꣢꣯ । इ꣡ष꣢꣯म् । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । आ । भ꣣र ॥१०२२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४१९ क्रमाङ्क पर परमात्मा को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ आचार्य को सम्बोधन करते हैं।
हे (देव) ज्ञान-प्रकाश के प्रदाता (अग्ने) विद्वन् आचार्य ! हम (ते) आपके (द्युमन्तम्) तेजस्वी, (अजरम्) पुराना न होनेवाले ज्ञान-समूह को (इधीमहि) अपने अन्दर प्रदीप्त करते हैं। (यत् ह) जो (स्या) वह (ते) आपकी (पनीयसी) अतिशय स्तुति-योग्य (समित्) ज्ञान-दीप्ति (द्यवि) प्रकाशित आपके आत्मा में (दीदयति) प्रदीप्त हो रही है, उस (इषम्) व्याप्त ज्ञानदीप्ति को (स्तोतृभ्यः) ईश्वर-स्तोता हम शिष्यों को (आ भर) प्रदान कीजिए ॥१॥
जो कोई भी विद्याएँ आचार्य जानता है, उन सभी को शिष्यों के लिए भलीभाँति देवे, जिससे शिष्य विद्वान् होकर अपने शिष्यों को पढ़ायें। इस प्रकार विद्या के पढ़ने-पढ़ाने का क्रम आगे-आगे बिना विघ्न के चलता रहे ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४१९ क्रमाङ्के परमात्मानं सम्बोधिता। अत्राचार्यः सम्बोध्यते।
हे (देव) ज्ञानप्रकाशप्रदातः (अग्ने) विद्वन् आचार्य ! वयम् (ते) तव (द्युमन्तम्) तेजोमयम्, (अजरम्) जरारहितम् ज्ञानस्तोमम् (इधीमहि) स्वाभ्यन्तरे प्रदीपयामः। (यत् ह) यत् खलु (स्या) सा (ते) तव (पनीयसी) स्तुत्यतरा (समित्) ज्ञानदीप्तिः (द्यवि) प्रकाशिते तवात्मनि (दीदयति) दीप्यते, ताम् (इषम्) व्याप्तां ज्ञानदीप्तिम् (स्तोतृभ्यः) ईश्वरस्तोतृभ्यः शिष्येभ्यः अस्मभ्यम् (आ भर) आहर ॥१॥२
याः का अपि विद्या आचार्यो जानाति ताः सर्वा अपि शिष्येभ्यः सम्यक् प्रयच्छेत् येन शिष्या विद्वांसो भूत्वा स्वशिष्यान् पाठयेयुः। एवं विद्याध्ययनाध्यापनक्रम उत्तरोत्तरं निर्विघ्नं प्रवर्तेत ॥१॥
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