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सु॒त इ॑न्दो प॒वित्र॒ आ नृभि॑र्य॒तो वि नी॑यसे । इन्द्रा॑य मत्स॒रिन्त॑मश्च॒मूष्वा नि षी॑दसि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

suta indo pavitra ā nṛbhir yato vi nīyase | indrāya matsarintamaś camūṣv ā ni ṣīdasi ||

पद पाठ

सु॒तः । इ॒न्दो॒ इति॑ । प॒वित्रे॑ । आ । नृऽभिः॑ । य॒तः । वि । नी॒य॒से॒ । इन्द्रा॑य । म॒त्स॒रिन्ऽत॑मः । च॒मूषु॑ । आ । नि । सी॒द॒सि॒ ॥ ९.९९.८

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:99» मन्त्र:8 | अष्टक:7» अध्याय:4» वर्ग:26» मन्त्र:3 | मण्डल:9» अनुवाक:6» मन्त्र:8


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप (पवित्रे) पवित्र अन्तःकरण में (सुतः) आवाहन किये हुए (नृभिः) कर्मयोगी पुरुषों द्वारा (यतः) साक्षात्कार किये हुए आप (विनीयसे) विशेषरूप से साक्षात्कार को प्राप्त होते हैं, (इन्द्राय) कर्मयोगी के लिये (मत्सरिन्तमः) आनन्दस्वरूप आप (चमूषु) सब प्रकार के बलों में (आनिषीदसि) स्थिर होते हैं ॥८॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य शुद्धान्तःकरण से कर्मयोगयुक्त होता है, परमात्मा उसी की सहायता करता है ॥८॥ यह निन्यानवाँ सूक्त और छब्बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

मत्सरिन्तमः

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्दो) = सोम ! (नृभिः यतः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्यों से संयत हुआ हुआ तू (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ (पवित्रे) = पवित्र हृदय वाले इस पुरुष में (आविनीयसे) = सर्वथा ले जाया जाता है । सोम का शरीर में व्यापन ही इसका शरीर में संयम है। हे सोम ! (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (मत्सरिन्तमः) = अतिशयेन आनन्द को देनेवाला तू (चमूषु) = इन शरीर पात्रों में (आनिषदसि) = चारों ओर विराजता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- संयत सोम अतिशयेन आह्लाद का जनक होता है । 'रेभसूनू काश्यपौ' ही अगले सूक्त के भी ऋषि हैं-
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूपपरमात्मन् ! भवान् (पवित्रे) पूतेऽन्तःकरणे (सुतः) आवाहितः (नृभिः) कर्मयोगिभिः (यतः) साक्षात्कृतः सन् (वि नीयसे) विशेषेण साक्षात्त्वं लभते (इन्द्राय) कर्मयोगिने (मत्सरिन्तमः) आनन्दमयो भवान् (चमूषु) सर्वविधबलेषु (आ नि सीदसि) एत्य तिष्ठति ॥८॥ इत्येकोननवतितमं सूक्तं षड्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O spirit of divinity, brilliant and blissful, perceived, reflected and meditated with constant exercise of spiritual discipline, you are distilled from experience and realised by devoted people in the purity of heart for the soul. It is thus that, most ecstatic and exhilarating, you abide in the heart and soul of humanity.