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परि॒ ष्य सु॑वा॒नो अ॑क्षा॒ इन्दु॒रव्ये॒ मद॑च्युतः । धारा॒ य ऊ॒र्ध्वो अ॑ध्व॒रे भ्रा॒जा नैति॑ गव्य॒युः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pari ṣya suvāno akṣā indur avye madacyutaḥ | dhārā ya ūrdhvo adhvare bhrājā naiti gavyayuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

परि॑ । स्यः । सु॒वा॒नः । अ॒क्षा॒रिति॑ । इन्दुः॑ । अव्ये॑ । मद॑ऽच्युतः । धारा॑ । यः । ऊ॒र्ध्वः । अ॒ध्व॒रे । भ्रा॒जा । न । एति॑ । ग॒व्य॒ऽयुः ॥ ९.९८.३

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:98» मन्त्र:3 | अष्टक:7» अध्याय:4» वर्ग:23» मन्त्र:3 | मण्डल:9» अनुवाक:6» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दुः) प्रकाशस्वरूप परमात्मा (मदच्युतः) जो आनन्दमय है, वह (अव्ये) रक्षायोग्य सत्कर्मी पुरुष के अन्तःकरण में (पर्य्यक्षाः) अपना ज्ञानप्रवाह बहाता है, (स्यः) वह (ऊर्ध्वः) सर्वोपरि विराजमान परमात्मा (यः) जो (अध्वरे) अहिंसाप्रधान यज्ञों में (धाराः) अपनी आनन्दमयी वृष्टि से (न) जैसे कि (भ्राजा) दीप्ति अपने प्रकाश्य पदार्थों में दीप्ति डालती है, इसी प्रकार (गव्ययुः) ज्ञानस्वरूप परमात्मा (सुवानः) जो सर्वोत्पादक है, (एति) वह अपनी व्यापक सत्ता से सर्वत्र व्याप्त है ॥३॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा विद्युत् की दीप्ति के समान सर्वत्र परिपूर्ण है ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अव्ये मदच्युतः

पदार्थान्वयभाषाः - (स्यः) = वह (सुवानः) = उत्पन्न किया जाता हुआ (इन्दुः) = सोम (अव्ये) = रक्षण करने वालों में उत्तम पुरुष में (परि अक्षा:) = शरीर में ही चारों ओर संचार वाला होता है। शरीर में व्याप्त यह सोम (मदच्युतः) = उल्लास को टपकानेवाला होता है, जीवन को उल्लासमय बनाता है । (यः) = जो सोम (अध्वरे) = इस जीवनयज्ञ में (धारा) = अपनी धारणशक्ति के साथ (ऊर्ध्वः) = ऊर्ध्वगतिवाला होता है, वह (न) = [संप्रति] अब (गव्ययुः) = ज्ञान की वाणियों की कामना वाला होता हुआ (भ्राजा) = दीप्ति के साथ (एति) = प्राप्त कराता है। दीप्त ज्ञानाग्नि वाला पुरुष इन ज्ञान की वाणियों को अपनानेवाला बनता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम, उल्लास को प्राप्त कराता है, ऊर्ध्वगतिवाला होकर ज्ञानदीप्ति का कारण बनता है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दुः) परमात्मा (मदच्युतः) आनन्दमयः (अव्ये) रक्षणीये सदाचार्यन्तःकरणे (परि अक्षाः) स्वज्ञानं स्यन्दयति (स्यः) सः (ऊर्ध्वः) सर्वोपरि वर्तमानः परमात्मा (यः) यः (अध्वरे) अहिंसाप्रधाने यज्ञे (धारा) स्वानन्दवृष्ट्या (न) यथा (भ्राजा) दीप्तिः स्वप्रकाश्यपदार्थेषु प्रविशति तथा (गव्ययुः) ज्ञानमयः परमात्मा (सुवानः) यः सर्वोत्पादकः (एति) स्वसत्तया सर्वं व्याप्नोति ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - May that Indu, divine Spirit of peace, purity and beauty, inspiring and strengthening, overflowing with the power of ecstasy, flow and reach into the favoured heart of the devotee, that supreme shower of divinity which goes forward like radiations of light into the yajna of love and non-violence with love and desire to reveal the truth of life.