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उ॒त न॑ ए॒ना प॑व॒या प॑व॒स्वाधि॑ श्रु॒ते श्र॒वाय्य॑स्य ती॒र्थे । ष॒ष्टिं स॒हस्रा॑ नैगु॒तो वसू॑नि वृ॒क्षं न प॒क्वं धू॑नव॒द्रणा॑य ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta na enā pavayā pavasvādhi śrute śravāyyasya tīrthe | ṣaṣṭiṁ sahasrā naiguto vasūni vṛkṣaṁ na pakvaṁ dhūnavad raṇāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त । नः॒ । ए॒ना । प॒व॒या । प॒व॒स्व॒ । अधि॑ । श्रु॒ते । श्र॒वाय्य॑स्य । ती॒र्थे । ष॒ष्टिम् । स॒हस्रा॑ । नै॒गु॒तः । वसू॑नि । वृ॒क्षम् । न । प॒क्वम् । धू॒न॒व॒त् । रणा॑य ॥ ९.९७.५३

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:97» मन्त्र:53 | अष्टक:7» अध्याय:4» वर्ग:21» मन्त्र:3 | मण्डल:9» अनुवाक:6» मन्त्र:53


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) और (एना) इस (पवया) पवित्र दृष्टि से (श्रवाय्यस्य) जो सबके सुनने के योग्य (श्रुते) श्रवणविषय है और (तीर्थे) तीर्थस्वरूप है, उसमें (अधि) अत्यन्त (पवस्व) आप हमको पवित्र करें, ताकि हम (नैगुतः) शत्रुओं के (षष्टिं, सहस्रा, वसूनि) असंख्यात धनों को हरण करते हुए (पक्वम्) पके हुए (वृक्षम्) वृक्ष के (न) समान (रणाय) रण के लिये (धूनवत्) उनको कँपाते हुए संसार में यात्रा करें ॥५३॥
भावार्थभाषाः - जो लोग उक्त प्रकार से कर्मयोगी वा उद्योगी बनते हैं, परमात्मा उन्हें अवश्यमेव अविद्यारूपी शत्रुओं के हनन करने का सामर्थ्य देता है ॥५३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

श्रवाय्यस्य तीर्थे

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) = और हे सोम ! तू (नः) = हमें (एना पवया) = इस अपनी पवित्र करनेवाली धारा से (अधिश्रुते) = सर्वाधिक प्रसिद्ध श्रवाय्यस्य तीर्थे श्रवणीय ज्ञान के तीर्थभूत-गुरुभूत प्रभु के समीप पवस्व प्राप्त करा । प्रभु निरतिशय ज्ञानवाले हैं, [तन्निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् ] वे गुरुओं के भी गुरु हैं [ स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्] । सोमरक्षण के द्वारा पवित्र जीवनवाले होकर, हम प्रभु के समीप प्राप्त होते हैं। (नैगुतः) = [नीचीनं गवन्ते शब्दायन्ते इति निगुतः शत्रवः, तेषां हन्ता 'नैगुतः '] = काम-क्रोध आदि शत्रुओं का संहार करनेवाला सोम (षष्टिं सहस्रा वसूनि) = साठ हजार धनों को, अनन्त धनों को (रणाय) = शत्रुओं के साथ संग्राम के लिये (धूनवद्) = कम्पित करे, अर्थात् हमारे लिये इस प्रकार प्राप्त कराये (ते) = जैसे कि (पक्कं वृक्षम्) = पके हुए फलों वाले वृक्ष को कम्पित करके फलों को प्राप्त कराते हैं। शरीर में सुरक्षित सोम हमें शत्रु विजय के लिये आवश्यक सहस्रशः धनों को प्राप्त करानेवाला हो ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम हमें तीव्र बुद्धि बनाकर प्रभु को प्राप्त कराता है। तथा सहस्रशः वसुओं को प्राप्त कराके शत्रुओं का विजेता बनाता है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) तथा च (एना, पवया) अनया पवित्रदृष्ट्या (श्रवाय्यस्य) श्रवणयोग्ये (तीर्थे) तीर्थस्वरूपे (श्रुते) श्रवणे विषये (अधि, पवस्व) अत्यन्तं पावयतु मां येनाहं (नैगुतः) शत्रोः (षष्टिं, सहस्रा, वसूनि) असंख्यातधनान्यपहरन् (पक्वं, वृक्षं, न) पक्ववृक्षमिव (रणाय) युद्धस्थले (धूनवत्) शत्रूंश्चलयन् संसारे विहराणि ॥५३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - And by this sacred stream of divinity, cleanse and sanctify us in this holy lake of the divine Word worth hearing over and above what has been heard. Master of infinite power and wealth, destroyer of hoards of negativities, give us boundless forms of wealth for our battle of life, shaking, as if, like a tree of ripe fruit this mighty tree of the world.