पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) = प्रकाशमय (सोम) = वीर्य ! तू (एवा) = गतिशीलता के द्वारा [इ गतौ] (देवताते) = दिव्यगुणों के विस्तार के निमित्त (पवस्व) = हमें प्राप्त हो । (देवपान:) = देववृत्ति के पुरुषों से तू पातव्य है । (महे प्सरसे) = तू महान् भक्षण के लिये हो, ब्रह्म [महान्] चर्य [भक्षण] के लिये हो। तेरे रक्षण से उत्कृष्ट ज्ञान का भक्षण करते हुए हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले हैं, यही वास्तविक ब्रह्मचर्य है, ब्रह्म ओर गति है । हे सोम ! (हिताः) = तेरे से प्रेरित हुए हुए हम (समर्ये) = संग्राम में (महः चित् हि) = महान् भी शत्रुओं को (ष्मसि) = अभिभूत करनेवाले हो । (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ तू (रोदसी) = द्यावापृथिवी की को, मस्तिष्क व शरीर को (सुष्ठाने) = उत्तम स्थितिवाला कृधि कर । सोम के द्वारा मस्तिष्क व शरीर की उत्तम स्थिति हो, मस्तिष्क ज्ञानदीति वाला हो तो शरीर शक्ति सम्पन्न हो ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सुररिक्षत सोम महान् ज्ञान की प्राप्ति के द्वारा हमें प्रभु को प्राप्त करानेवाला हो । इसके द्वारा संग्राम में हम रोगकृमिरूप शत्रुओं को जीतनेवाले हों। हमारे मस्तिष्क व शरीर उत्तम स्थिति में हों ।