पदार्थान्वयभाषाः - हे सोम ! (इव) = जैसे युद्ध में (श्रवसे) = विजय के यश के लिये (अर्वान्) = घोड़ों को प्राप्त करते हैं, इसी प्रकार (सातिम्) = प्रभु प्राप्ति का (अच्छ) = लक्ष्य करके (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के तथा (वायो:) = गतिशील पुरुष के (वीतिम्) = ज्ञान को (अधि अर्ष) = तू प्राप्त हो । अर्थात् जितेन्द्रिय व गतिशील पुरुष के द्वारा तेरा शरीर में ही व्यापन किया जाये जिससे वे इन्द्र व वायु प्रभु को प्राप्त कर सकें। शरीर में सोमरक्षण का ही अन्तिम परिणाम यह है कि ज्ञानाग्नि दीप्त होकर व बुद्धि सूक्ष्म होकर प्रभु का ग्रहण होता है। हे सोम ! (सः) = वह तू (नः) = हमारे लिये (सहस्रा) = हजारों (बृहती:) = बुद्धि की कारणभूत (इषः) = प्रेरणाओं को (दाः) = दीजिये । सोमरक्षण से पवित्र हृदय होकर हम प्रभु की प्रेरणा को सुननेवाले बनें। हे (सोम) = वीर्य ! तू (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ (द्रविणोवित्) = सब अन्नमय आदि कोशों के ऐश्वर्य को प्राप्त करानेवाला (भवा) = हो । सोमरक्षण से हमारे सब कोश (क्रमशः) = 'तेज, वीर्य, बल व ओज, ज्ञान व सहनशक्ति' से परिपूर्ण होते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - जितेन्द्रिय व गतिशील पुरुष सोम का रक्षण करते हैं। यह सोम प्रभु प्राप्ति का साधन बनता है, हमारे हृदयों में इसके रक्षण से प्रभु प्रेरणा सुन पड़ती है, यह सब कोशों को ऐश्वर्ययुक्त करता है ।