दिव्य जीवन व उत्कृष्ट ऐश्वर्य
पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्दो) = सोम! (एवा) = इस प्रकार (नः) = हमारी (देववीतिम्) = दिव्यगुणों की प्राप्ति का (अभि) = लक्ष्य करके (चमूषु) = इन शरीर रूप पात्रों में (नभः अर्णः) = द्युलोक के जल को, मस्तिष्क रूप द्युलोक के ज्ञानजल को (परिस्रव) = प्राप्त करा । सोम ही सुरक्षित होकर ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और ज्ञान को प्राप्त कराके हमारे जीवन में दिव्यगुणों की उत्पत्ति का कारण बनता है । (सोमः) = शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ सोम (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (रयिं ददातु) = उस ऐश्वर्य को प्राप्त कराये जो (काम्यम्) = वस्तुत: चाहने योग्य है, (बृहन्तम्) = वृद्धि का कारण बनता है, (वीरवन्तम्) = वीर सन्तानों वाला व (उग्रम्) = तेजस्वी है । सोमी पुरुष का धन उसके जीवन में अवाञ्छनीय प्रभावों को उत्पन्न नहीं करता, यह उसके सन्तानों को भी विलास में फँसानेवाला नहीं होता। यह सोमी पुरुष स्वयं भी धन का स्वामी, न कि दास, होता हुआ उग्र व तेजस्वी बनता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम ज्ञान को प्राप्त कराके हमें दिव्य जीवन वाला बनाता है तथा उत्कृष्ट ऐश्वर्य को यह प्राप्त करानेवाला होता है।