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इष॒मूर्ज॑म॒भ्य१॒॑र्षाश्वं॒ गामु॒रु ज्योति॑: कृणुहि॒ मत्सि॑ दे॒वान् । विश्वा॑नि॒ हि सु॒षहा॒ तानि॒ तुभ्यं॒ पव॑मान॒ बाध॑से सोम॒ शत्रू॑न् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

iṣam ūrjam abhy arṣāśvaṁ gām uru jyotiḥ kṛṇuhi matsi devān | viśvāni hi suṣahā tāni tubhyam pavamāna bādhase soma śatrūn ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इष॑म् । ऊर्ज॑म् । अ॒भि । अ॒र्ष॒ । अश्व॑म् । गाम् । उ॒रु । ज्योतिः॑ । कृ॒णु॒हि॒ । मत्सि॑ । दे॒वान् । विश्वा॑नि । हि । सु॒ऽसहा॑ । तानि॑ । तुभ्य॑म् । पव॑मान । बाध॑से । सो॒म॒ । शत्रू॑न् ॥ ९.९४.५

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:94» मन्त्र:5 | अष्टक:7» अध्याय:4» वर्ग:4» मन्त्र:5 | मण्डल:9» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इषम्) ऐश्वर्य्य और (उर्जं)  बल (अभ्यर्ष) हे परमात्मन् ! आप दें और (अश्वम्) क्रियाशक्ति और (गाम्) ज्ञानरूपी शक्ति इन दोनों को भी (उरु, ज्योतिः) विस्तृत ज्योति (कृणुहि) करें और (देवान्) विद्वान् लोगों को (मत्सि) तृप्त करें। (विश्वानि हि सुषहा) सम्पूर्ण सहनशील शक्तियें निश्चय करके आप में हैं, (तानि) वे शक्तियें तुमको विभूषित करती हैं। (पवमान) हे सबको पवित्र करनेवाले परमात्मन् ! (तुभ्यम्) तुमसे मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि तुम (शत्रून्) अन्यायकारी दुष्टों को (बाधसे) निवृत्त करने के लिये समर्थ हो। (सोम) हे परमात्मन्। आप हममें भी इस प्रकार का बल दीजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा अनन्तशक्तिरूप है। जब वह अपने भक्तों को पात्र समझता है, तो सब प्रकार के अन्यायकारियों को दमन करके सुनीति और धर्म का प्रचार संसार में फैला देता है। तात्पर्य यह है कि जो लोग परमात्मा की दया का पात्र बनते हैं, उन्हीं के शत्रुभूत दुष्ट दस्युओं का परमात्मा दमन करता है, अन्यों के नहीं ॥५॥ यह ९४ वाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

उरु ज्योतिः

पदार्थान्वयभाषाः - हे सोम ! (इषम्) = प्रभु की प्रेरणा को तथा उस प्रेरणा को क्रियान्वित करने के लिये (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति को (अभ्यर्षः) = प्राप्त करा । अश्वं कर्मेन्द्रियों को, (गाम्) = ज्ञानेन्द्रियों को प्राप्त करा । (उरु ज्योतिः कृणुहि) = विशाल प्रकाश को तू हमें प्राप्त करा । (देवान् मत्सि) = दिव्य गुणों से युक्त पुरुषों को तू आनन्दित कर । हे (पवमानः) = पवित्र करनेवाले सोम ! (तुभ्यम्) = तेरे लिये (विश्वानि हि तानि) = सब ही वे हमारे न चाहते हुए भी अन्दर घुस आनेवाले राक्षसी भाव (सुषहा) = सुगमता से कुचलने योग्य हैं । हे सोम ! तू उन (शत्रून्) = शत्रुओं को (बाधसे) = पीड़ित करता है। वस्तुतः सोमरक्षण के होने पर शरीर में रोग ही नहीं, राक्षसीभाव भी समाप्त हो जाते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण से हमें प्रभु प्रेरणा सुन पड़ती है, उस प्रेरणा को हम क्रियान्वित करने के लिये शक्ति को प्राप्त करते हैं । हमारी कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेन्द्रियाँ उत्कृष्ट बनती हैं। विशाल ज्योति को प्राप्त करके हम देव बनते हैं। वासनाओं को कुचल पाते हैं । अगले सूक्त का ऋषि 'प्रस्कण्व' हैं, कण्वपुत्र, अर्थात् अत्यन्त मेधावी । यह कहता है-
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इषं) ऐश्वर्यं (ऊर्जं) बलञ्च (अभि, अर्ष) भवान्ददातु (अश्वं) क्रियाशक्तिं (गां) ज्ञानशक्तिञ्च इमे द्वे अपि (उरु, ज्योतिः) विस्तृतज्योतिषौ (कृणुहि) करोतु (देवान्) विदुषः (मत्सि) तर्पयतु (विश्वानि, हि, सुषहा) सर्वसहनशीलशक्तयो भवत्सु विद्यन्ते (तानि) ताः शक्तयः त्वा भूषयन्ति। (पवमान) हे सर्वपावक ! (तुभ्यं) त्वत्तः इदं प्रार्थये यत्त्वं (शत्रून्) अन्यायकारिणां (बाधसे) निवृत्तौ समर्थः (सोम) हे परमात्मन् ! भवान् अस्मास्वपि एवंविधं बलं ददातु ॥५॥ इति चतुर्नवतितमं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Soma, spirit of divine peace and power, move and bring us food, energy and excellence, move and bring movement and progress, lands, cows and light of knowledge. Make these expansive and rising. Give joy and fulfilment to the noble sages, scholars and generous people. You are the power and courage of forbearance. O pure and purifying power, we pray and ask for these of you. You prevent and cast off the enemies and negative forces of life.