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श्रि॒ये जा॒तः श्रि॒य आ निरि॑याय॒ श्रियं॒ वयो॑ जरि॒तृभ्यो॑ दधाति । श्रियं॒ वसा॑ना अमृत॒त्वमा॑य॒न्भव॑न्ति स॒त्या स॑मि॒था मि॒तद्रौ॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śriye jātaḥ śriya ā nir iyāya śriyaṁ vayo jaritṛbhyo dadhāti | śriyaṁ vasānā amṛtatvam āyan bhavanti satyā samithā mitadrau ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श्रि॒ये । जा॒तः । श्रि॒ये । आ । निः । इ॒या॒य॒ । श्रिय॑म् । वयः॑ । ज॒रि॒तृऽभ्यः॑ । द॒धा॒ति॒ । श्रिय॑म् । वसा॑नाः । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । आ॒य॒न् । भव॑न्ति । स॒त्या । स॒म्ऽइ॒था । मि॒तऽद्रौ॑ ॥ ९.९४.४

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:94» मन्त्र:4 | अष्टक:7» अध्याय:4» वर्ग:4» मन्त्र:4 | मण्डल:9» अनुवाक:5» मन्त्र:4


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - वह परमात्मा (श्रिये जातः) ऐश्वर्य्य के लिये सर्वत्र प्रगट है और (श्रियं निरियाय) श्री के लिये ही सर्वत्र गतिशील है और (श्रियं) ऐश्वर्य्य को और (वयः) आयु को (जरितृभ्यः) उपासकों के लिये (दधाति) धारण करता है। (श्रियं वसानाः) श्री को धारण करता हुआ (अमृतत्वमायन्) अमृतत्व को विस्तार करता हुआ (सत्या समिथा) सत्यरूपी यज्ञों के करनेवाला होता है। (मितद्रौ) सर्वज्ञ गतिशील परमात्मा में (सत्या भवन्ति) ब्रह्मयज्ञ चित्त की स्थिरता के हेतु होते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो परमात्मोपासक हैं, उनको परमात्मा सब प्रकार का ऐश्वर्य्य देता है ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

श्री सम्पन्न - जीवन

पदार्थान्वयभाषाः - यह सोम (श्रिये जात:) = हमारे जीवन में श्री के लिये उत्पन्न हुआ है। (श्रिये) = शोभा के लिये ही (आ) = चारों ओर (निरियाय) = निश्चय से गतिवाला होता है यह सोम (जरितृभ्यः) = स्तोताओं के लिये (श्रियम्) = शोभा को व (वयः) = उत्कृष्ट जीवन को (दधाति) = धारण करता है। इस सोम जनित (श्रियम्) = श्री को (वसानाः) = धारण करते हुए लोग (अमृतत्वम्) = अमृतत्त्व को, नीरोगता को (आयन्) = प्राप्त होते हैं। ये सोम (मितद्रौ) = नपी तुली गतियोंवाले पुरुष में, युक्ताहार विहार पुरुष में (सत्या समिथा) = सत्य[यथार्थ] संग्राम करनेवाले (भवन्ति) = होते हैं। सोम कणों द्वारा रोगकृमियों व वासनाओं पर आक्रमण किया जाता है। इन रोगों व वासनाओं को विनष्ट करके सोम हमारे जीवनों को श्री सम्पन्न बनाते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम रोगों व वासनाओं को विनष्ट करते हैं । हमें उत्कृष्ट श्री सम्पन्न जीवन को प्राप्त कराते हैं ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - स परमात्मा (श्रिये, जातः) ऐश्वर्याय सर्वत्र प्रकाश्यते (श्रियं, निः, इयाय) श्रिये हि सर्वत्र गतिशीलोऽस्ति (श्रियं) ऐश्वर्यं तथा (वयः) आयुश्च (जरितृभ्यः) उपासकेभ्यः (दधाति) धारयति (श्रियं, वसानाः) श्रियं धारयन् (अमृतत्वं, आयन्) अमृतत्वं विस्तारयन् (सत्या, समिथा) सत्यरूपयज्ञानां कर्ता भवति (मितद्रौ) सर्वत्र गतिशीले परमात्मनि (सत्या, भवन्ति) ब्रह्मयज्ञाः चित्तस्थैर्यस्य हेतवो भवन्ति ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Soma manifests in glory for the grace and magnificence of the world, moves simultaneously, omnipresent, for glory and bears beauty and grace, health and age for the celebrants. The yajakas wearing vestments of immortality, with their oblations into the fire of measured law and movement, join together in truth and achieve their immortal meaning and purpose in the battle of life.