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परि॒ यत्क॒विः काव्या॒ भर॑ते॒ शूरो॒ न रथो॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ । दे॒वेषु॒ यशो॒ मर्ता॑य॒ भूष॒न्दक्षा॑य रा॒यः पु॑रु॒भूषु॒ नव्य॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pari yat kaviḥ kāvyā bharate śūro na ratho bhuvanāni viśvā | deveṣu yaśo martāya bhūṣan dakṣāya rāyaḥ purubhūṣu navyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

परि॑ । यत् । क॒विः । काव्या॑ । भर॑ते । शूरः॑ । न । रथः॑ । भुव॑नानि । विश्वा॑ । दे॒वेषु॑ । यशः॑ । मर्ता॑य । भूष॑न् । दक्षा॑य । रा॒यः । पु॒रु॒ऽभूषु । नव्यः॑ ॥ ९.९४.३

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:94» मन्त्र:3 | अष्टक:7» अध्याय:4» वर्ग:4» मन्त्र:3 | मण्डल:9» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो परमात्मा (कविः) सर्वज्ञ है, (काव्या भरते) कवियों के भाव को पूर्ण करनेवाला है, जिसमें (शूरो न) शूरवीर के समान (रथः) क्रियाशक्ति है, (विश्वा भुवनानि) सम्पूर्ण भुवन जिसमें स्थिर हैं, (देवेषु) सब विद्वानों में (यशः) जिसका यश है, (मर्ताय भूषन्) सब मनुष्यों को विभूषित करता हुआ (दक्षाय रायः) जो चातुर्य्य का और धन का (पुरु भूषु) स्वामी है और (नव्यः) नित्य नूतन है ॥३॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा सर्वज्ञ है और अपनी सर्वज्ञता से सबके ज्ञान में प्रवेश करता है ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

कविः काव्या भरते

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) = जब (कविः) = कान्तप्रज्ञ सोम (काव्या) = ज्ञानों को (परिभरते) = हमारे अन्दर धारित करता है, उस समय यह सोम (शूरः) = शत्रुओं के बन्धक (रथः न) = रथ के समान होता है (विश्वा भुवनानि भरते) = सब भुवनों [प्राणियों] का यह भरण करता है । सोम रक्षित होकर हमें तीव्र बुद्धि बनाता है। यह बुद्धि ज्ञान की वर्धक बनती है। हमें यह ज्ञान वासना रूप शत्रुओं के विनाश में सहायक होता है और हमारी सब शक्तियों को ठीक से स्थिर रखता है। यह सोम देवेषु देवों स्थित (यशः) = यश को (मर्ताय भूषन्) = मनुष्य के लिये भावित करना चाहता है [भाषायितु मिच्छन्] । शरीर में सुरक्षित सोम मनुष्यों को देवों के समान यशस्वी बनाता है। (रायः दक्षाय) = यह सोम ऐश्वर्यों के वर्धन के लिये होता है और इसीलिये (पुरुभूषु) = पालक व पूरक यज्ञ में यह (नव्यः) = स्तुत्य होता है । यज्ञभूमियों में एकत्रित होने पर सोम का ही संशन होता है। वस्तुतः सोमरक्षण से ही यज्ञिय भावनायें भी उत्पन्न होती हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम हमारे जीवनों में ज्ञान को भरता है। देवों के समान हमें यशस्वी बनाता है और यज्ञस्थलों में यही स्तुत्य होता है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यः परमात्मा (कविः) सर्वज्ञः (काव्या, भरते) कविभावस्य पूरकः, यत्र (शूरः, न) शूरस्येव (रथः) क्रियाशक्तिः (विश्वा, भुवनानि) सर्वे लोका यत्र स्थिराः (देवेषु) सर्वविद्वत्सु (यशः) यस्य कीर्तिः (मर्ताय, भूषन्) सर्वजनान् भूषयन् (दक्षाय, रायः) यश्चातुर्यस्य धनस्य च (पुरु, भूषु) स्वाम्यस्ति (नव्यः) नित्यनूतनश्च ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Soma, omniscient poetic spirit of the universe, which holds and brings us all celebrated beauties of the world and, as the omnipotent hero and master of the universal chariot, bears and sustains all regions of the universe, is the living glory in all divinities, magnificence for mortal humanity, wealth for the expert artist and ever new life in all forms of existence.