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द्वि॒ता व्यू॒र्ण्वन्न॒मृत॑स्य॒ धाम॑ स्व॒र्विदे॒ भुव॑नानि प्रथन्त । धिय॑: पिन्वा॒नाः स्वस॑रे॒ न गाव॑ ऋता॒यन्ती॑र॒भि वा॑वश्र॒ इन्दु॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dvitā vyūrṇvann amṛtasya dhāma svarvide bhuvanāni prathanta | dhiyaḥ pinvānāḥ svasare na gāva ṛtāyantīr abhi vāvaśra indum ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द्वि॒ता । वि॒ऽऊ॒र्ण्वन् । अ॒मृत॑स्य । धाम॑ । स्वः॒ऽविदे॑ । भुव॑नानि । प्र॒थ॒न्त॒ । धियः॑ । पि॒न्वा॒नाः । स्वस॑रे । न । गावः॑ । ऋ॒त॒ऽयन्तीः॑ । अ॒भि । व॒व॒श्रे॒ । इन्दु॑म् ॥ ९.९४.२

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:94» मन्त्र:2 | अष्टक:7» अध्याय:4» वर्ग:4» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - वह परमात्मा (द्विता) जीव और प्रकृतिरूप द्वैत को (व्यूर्ण्वन्) आच्छादन करता हुआ (अमृतस्य धाम) अमृत का धाम है। उस (स्वर्विदे) सर्वज्ञ के लिये (भुवनानि) सम्पूर्ण लोक-लोकान्तर (प्रथन्त) विस्तीर्ण होते हैं। वह परमात्मा (धियः पिन्वानाः) विज्ञानों से भरा हुआ (स्वसरे) अपने स्वरूप में (न) जैसे कि (गावः) इन्द्रियें (ऋतायन्तीः) यज्ञ की इच्छा करती हुई सब ओर से (अभिवावश्रे) शब्द करती हैं अथवा (इन्दुं) प्रकाशरूप परमात्मा की कामना करती हैं, इसी प्रकार जिज्ञासु लोग उस परमात्मा की कामना करें ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा के द्वैतवाद का वर्णन किया है ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अमृत का धाम

पदार्थान्वयभाषाः - (द्विता) = शरीर व मस्तिष्क दोनों की शक्तियों का विस्तार करनेवाला यह सोम (व्यूर्वन्) = विशेष रूप से हमें आच्छादित करता है, हमें सुरक्षित करता है। यह (अमृतस्यधाम) = नीरोगता का घर है । (स्वर्विदे) = प्रकाश की प्राप्ति के लिये (भुवनानि) = सब लोक (प्रथन्त) = इस सोम का विस्तार करते हैं । सोम शक्ति के विस्तार के अनुपात ही में ज्ञान का विस्तार होता है । (धियः पिन्वानाः) = बुद्धियों का वर्धन करती हुई और (ऋतायन्ती) = ऋत व यज्ञ को प्राप्त करने की कामनावाली प्रजायें (इन्दुम् अभिवावश्रे) = सोम की कामना करती हैं। (न) = जैसे कि (स्वसरे) = गोष्ठ में [सुष्ठ, अस्यन्ते प्रेर्यन्ते गाव: अत्र सा०] (गावः) = गौवें (धियः पिन्वानाः) = हमारी बुद्धियों का वर्धन करती हैं, इसी प्रकार शरीर में ये सोम हमारी बुद्धि का वर्धन करते हैं। गोष्ठ में जैसे गौवे हैं, उसी प्रकार शरीर में सोम हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम शरीर व मस्तिष्क दोनों का आच्छादक बनता है । यह अमृत का धाम है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - स परमात्मा (द्विता) जीवप्रकृतिरूपद्वैतं (व्यूर्ण्वन्) आच्छादयन् (अमृतस्य, धाम) अमृताधारोऽस्ति तस्मै (स्वर्विदे) सर्वज्ञाय (भुवनानि) सम्पूर्णलोकलोकारान्तराणि (प्रथन्त) विस्तीर्यन्ते। स परमात्मा (धियः, पिन्वानाः) विज्ञानेन परिपूर्णः (स्वसरे) स्वरूपे (न) यथा (गावः) इन्द्रियाणि (ऋतायन्तीः) यज्ञेच्छां कुर्वाणानि सर्वतः (अभि, वावश्रे) शब्दं कुर्वन्ति अथवा (इन्दुं) प्रकाशस्वरूपपरमात्मानं कामयन्ते। एवं हि जिज्ञासव उक्तपरमात्मानं कामयन्ताम् ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - For the man of divine vision the worlds of existence extend revealing the twofold, physical and spiritual, grandeur of the treasure-hold of immortal Soma. Like cows lowing in their own stall, the songs of divine Veda, inspiring and expanding in their own abode of the mind and nature, resound and celebrate the refulgent Indu, Soma, divine spirit of beauty, peace, power and bliss.