पदार्थान्वयभाषाः - (स्वसारः) [स्व+सृ] = आत्मतत्त्व की ओर चलनेवाले व्यक्ति (उरुचक्रे) = विशाल चक्रवाले (रथे) = इस शरीररथ में, अर्थात् खूब क्रियाशील इस शरीररथ में, इस सोम को (युञ्जन्ति) = युक्त करते हैं, सोम को शरीर में ही सुरक्षित करते हैं । उस सोम को, जो (मधुपृष्ठम्) = माधुर्य का आधार है, (घोरम्) = शत्रुओं के लिये, रोगों व वासनाओं के लिये भयंकर है, (अयासम्) = हमें निरन्तर क्रियाओं में प्रेरित करनेवाला है, अश्वं कार्यमार्गों को शीघ्रता से व्यापनेवाला है और (ऋष्वं) = महान् व दर्शनीय है। इस सोम को (ईम्) = निश्चय से (जामयः) = अपने में सद्गुणों का विकास करनेवाले व्यक्ति (मर्जयन्ति) = शुद्ध करते हैं। (सनाभयः) = [सह, नह बन्धने] अपने को प्रभु के साथ जोड़नेवाले व 'अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः ' यज्ञशील व्यक्ति (वाजिनम्) = इस शक्तिशाली सोम को (ऊर्जयन्ति) = अपने में बल व प्राणशक्ति का संचार करनेवाला करते हैं। सोमरक्षण से अपने जीवन को बलवान् बनाते
भावार्थभाषाः - भावार्थ-आत्मतत्त्व की ओर चलना सद्गुणों को अपने में उत्पन्न करना व यज्ञशील बनना ही सोमरक्षण का साधन है, सुरक्षित सोम हमें सबल बनाता है।