शुष्मी-अनभिशस्ता-सुमति-पृतनाषाद्
पदार्थान्वयभाषाः - हे सोम ! (शुष्मी) = शत्रु शोषक बलवाला तू (पवस्व) = हमें प्राप्त हो । तू (मारुतं शर्धः न) = प्राणों के बल के समान हमें प्राप्त हो। यह सोम क्या है ? यह तो प्राणों का बल है। यह सोम तो (अनभिशस्ता) = आनन्दित (दिव्या विट् यथा) = दिव्य प्रजा के समान है। वस्तुतः सोम ही प्राणों के बल को प्राप्त कराता है और यह सोम ही हमारे जीवन को आनन्दित व दिव्य बनाता है। आपो (न) = जलों के समान तू (नः) = हमारे लिये (सुमतिः भव) = कल्याणी मतिवाला हो। जल शरीर के सब रोगों को दूर करके स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का कारण बनते हैं, इसी प्रकार सोम तीव्र बुद्धि के जनक हैं, वस्तुतः ये ही ज्ञानाग्नि के ईंधन हैं। (सहस्त्राप्सा:) = यह सोम [सहस्] आनन्दमय रूप को प्राप्त करानेवाला है। (पृतनाषाण् न) = शत्रु सैन्य के पराभव करनेवाले के समान यह (यज्ञः) = संगतिकरण योग्य है । सोम का हम शरीर में संगतिकरण करेंगे, तो यह हमारे सब शत्रुओं का पराभव करनेवाला होगा, हमें नीरोग-निर्मल व तीव्र बुद्धिवाला बनायेगा ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम हमें बलवान् बनाता है, हमारे जीवन को आनन्दित करता है, सुमति को देता है और हमारे रोग वासना रूप शत्रुओं का पराभव करता है।