पदार्थान्वयभाषाः - (यः) = जो सोम (वायुः न) = निरन्तर चलनेवाली वायु के समान (नियुत्वान्) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाला है और (इष्टयामा) = लक्ष्य तक पहुँचानेवाला है, वह सोम (नासत्या इव) = प्राणापान की तरह (हवे) = पुकारने पर (आ शम्भविष्ठः) = शरीर में समन्तात् शान्ति को उत्पन्न करनेवाला है। शरीर में सुरक्षित सोम रोगादि को विनष्ट करके शान्ति को उत्पन्न करनेवाला है । (द्रविणोदाः इव) = धनों के देनेवाले की तरह (त्मन्) = अपने अन्दर (विश्ववार:) = सब वरणीय वस्तुओं को प्राप्त करानेवाला है । सोम सुरक्षित होकर शरीर में सब कोशों को वरणीय धनों से परिपूर्ण करता है । हे सोम ! तू (पूषा इव) = सबके पोषक इस सूर्य की तरह (धीजवनः असि) = कर्मों को प्रेरित करनेवाला है [धी = कर्म] जैसे सूर्य सब को कर्मों में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देता है, उसी प्रकार यह सोम हमें स्फूर्तिमय बनाता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम इष्ट लक्ष्य स्थान पर हमें पहुँचाता है, रोगादि को शान्त करता है, सब वरणीय वस्तुओं को प्राप्त कराता है और स्फूर्ति को देकर कर्मों में प्रेरित करता है।