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ए॒षा य॑यौ पर॒माद॒न्तरद्रे॒: कूचि॑त्स॒तीरू॒र्वे गा वि॑वेद । दि॒वो न वि॒द्युत्स्त॒नय॑न्त्य॒भ्रैः सोम॑स्य ते पवत इन्द्र॒ धारा॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

eṣā yayau paramād antar adreḥ kūcit satīr ūrve gā viveda | divo na vidyut stanayanty abhraiḥ somasya te pavata indra dhārā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

एषा । य॒यौ॒ । प॒र॒मात् । अ॒न्तः । अद्रेः॑ । कूऽचि॑त् । स॒तीः । ऊ॒र्वे । गाः । वि॒वे॒द॒ । दि॒वः । न । वि॒ऽद्युत् । स्त॒नय॑न्ती । अ॒भ्रैः । सोम॑स्य । ते॒ । प॒व॒ते॒ । इ॒न्द्र॒ । धारा॑ ॥ ९.८७.८

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:87» मन्त्र:8 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:23» मन्त्र:3 | मण्डल:9» अनुवाक:5» मन्त्र:8


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (सोमस्य) सौम्यगुणविशिष्ट परमात्मा की (धाराः) ज्ञान की धारा (ते) तुमको (पवते) पवित्र करे (न) जिस प्रकार (दिवः) द्युलोक से (अभ्रैः) अभ्रों के द्वारा (विद्युत्) बिजली (स्तनयन्ती) शब्द करती हुई विस्तार पाती है, इसी प्रकार परमात्मा की ज्ञानज्योति तुममें विस्तार को प्राप्त हो। (एषा) उक्त धारा (परमादद्रेः) सबको विदीर्ण करनेवाला जो परमात्मा है, उसके (अन्तः) स्वरूप से (कूचित् सतीः) किसी एक स्थान में गूढ़ हुई (ऊर्वे) गूढ़देश में जो (गाः) अपनी सत्ता को (विवेद) लाभ कर रही है, वह (आययौ) उपासक के अन्तःकरण में स्थिर होती है ॥८॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा अपने भक्त के हृदय में अपने भावों को प्रकाश करता है ॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अद्रेः अन्तः कूचित् ऊर्वे सतीः गाः विवेद

पदार्थान्वयभाषाः - (एषा) = यह सोमस्य (धारा) = सोम की धारा (परमात्) = उत्कृष्ट मार्ग से (ययौ) = गतिवाली होती है । दक्षिणायन के स्थान में उत्तरायण से जाना है यह सोमधारा की परमगति है । इस उत्कृष्ट मार्ग से जाती हुई यह सोमधारा (अद्रेः अन्तः) = अविद्यापर्वत के अन्दर (कूचित्) = कहीं (ऊर्वे) = बाड़े में, विषयबन्धन में (सती:) = होती हुई, फँसी हुई (गाः) = इन इन्द्रियों को यह सोमधारा कैद से मुक्त करती है । हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (न) = जैसे (दिवः) = द्युलोक से (अभैः) = बादलों के साथ (स्तनयन्ति) = शब्द करती हुई (विद्यत्) = विद्युत् प्राप्त होती है, उसी प्रकार (ते) = तेरी यह सोमधारा भी प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करती हुई प्राप्त होती है । सोमरक्षण से प्रभु की ओर झुकाव होता ही है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सुरक्षित सोम इन्द्रियों को विषय-बन्धन से मुक्त करता है । सोमरक्षण के होने पर प्रभुस्तवन की प्रवृत्ति होती है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्म्मयोगिन् ! (सोमस्य) सौम्यगुणसम्पन्नस्य परमात्मनः (धारा) ज्ञानस्य धारा (ते) त्वा (पवते) पवित्रयतु। (न) यथा (दिवः) द्युलोकात् (अभ्रैः) मेघैः (विद्युत्) तडित् (स्तनयन्ती) शब्दायमाना विस्तारं प्राप्नोति तथैव परमात्मनो ज्ञानज्योतिस्त्वयि विस्तारं प्राप्नोतु। (एषा) उक्तधारा (परमात्, अद्रेः) सर्वविदारको यः परमात्मा अस्ति तस्य (अन्तः) स्वरूपे (कूचित् सतीः) कस्मिन्नप्येकस्थाने गुप्ता सती (ऊर्वे) गुप्तदेशे या (गाः) निजसत्तां (विवेद) लभते सा (आ, ययौ) उपासकस्यान्तःकरणे स्थिरा भवति ॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord almighty, this Soma stream of your power and bliss flows from the highest regions of existence and, sustained somewhere in the vast expanse of space, reaches the earthly regions of the universe like lightning from the regions of light, thundering with the clouds in the middle regions of the skies, seen and heard on the earth.