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य॒ज्ञस्य॑ के॒तुः प॑वते स्वध्व॒रः सोमो॑ दे॒वाना॒मुप॑ याति निष्कृ॒तम् । स॒हस्र॑धार॒: परि॒ कोश॑मर्षति॒ वृषा॑ प॒वित्र॒मत्ये॑ति॒ रोरु॑वत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yajñasya ketuḥ pavate svadhvaraḥ somo devānām upa yāti niṣkṛtam | sahasradhāraḥ pari kośam arṣati vṛṣā pavitram aty eti roruvat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य॒ज्ञस्य॑ । के॒तुः । प॒व॒ते॒ । सु॒ऽअ॒ध्व॒रः । सोमः॑ । दे॒वाना॑म् । उप॑ । या॒ति॒ । निः॒ऽकृ॒तम् । स॒हस्र॑ऽधारः॑ । परि॑ । कोश॑म् । अ॒र्ष॒ति॒ । वृषा॑ । प॒वित्र॑म् । अति॑ । ए॒ति॒ । रोरु॑वत् ॥ ९.८६.७

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:86» मन्त्र:7 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:5» मन्त्र:7


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञस्य केतुः) ज्ञानयज्ञ, कर्म्मयज्ञ, ध्यानयज्ञ, योगयज्ञ, इत्यादि यज्ञों का परमात्मा केतु है। (पवते) सबको पवित्र करनेवाला है और (स्वध्वरः) अहिंसाप्रधान यज्ञोंवाला है। (सोमः) वह सोमस्वभाव परमात्मा (देवानां) विद्वानों के (निष्कृतम्) संस्कृत अन्तःकरणों को प्राप्त होता है। (सहस्रधारः) अनन्तशक्तिसम्पन्न है और (कोशम्) ज्ञानीपुरुष के अन्तःकरण को (पर्य्यर्षति) प्राप्त होता है। वह परमात्मा (पवित्रं) प्रत्येक पवित्रता को (अत्येति) अतिक्रमण करता है अर्थात् सर्वोपरि पवित्र है। (वृषा) वह बलस्वरूप है और (रोरुवत्) सर्वत्र शब्दायमान है ॥७॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा अपनी अनन्तशक्ति से सर्वत्र विराजमान है, यद्यपि वह सर्वत्र विद्यमान है, तथापि उसकी अभिव्यक्ति विद्वानों के अन्तःकरण में ही होती है, अन्यत्र नहीं ॥७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'स्वध्वरः - यज्ञस्य केतुः ' सोमः

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वध्वरः) = उत्तम हिंसारहित कार्यों में हमें प्रवृत्त करनेवाला (सोमः) = यह सोम [वीर्यशक्ति] (यज्ञस्य केतुः) = यज्ञों का प्रकाशक होता है, हमारे जीवनों को यज्ञमय बनाता है। यह सोम (देवानाम्) = देववृत्तिवाले पुरुषों के (निष्कृतम्) = संस्कृत हृदयरूप स्थान को (उपयाति) = समीपता से प्राप्त होता है। अर्थात् यह सोम देववृत्तिवाले पुरुषों के जीवन में ही सुरक्षित रहता है। (सहस्त्रधारः) = हजारों प्रकार से धारण करनेवाला यह सोम (कोशं परिअर्षति) = शरीर के कोशों में चारों ओर प्राप्त होता है। शरीर के सब कोशों को वस्तुतः यह उस उस धन से परिपूर्ण करता है । अन्नमय कोश को यह तेज प्राप्त कराता है, प्राणमय को वीर्य, मनोमय को बल व ओज- विज्ञानमय को ज्ञान प्राप्त कराता हुआ यह आनन्दमय कोश में हमें अद्भुत सहनशक्ति से परिपूर्ण करता है (वृषा) = शक्ति का सेचन करनेवाला यह सोम (रोरुवत्) = प्रभु के स्त्रोतों का उच्चारण करता हुआ, अपने रक्षक को प्रभुभक्त बनाता हुआ, (पवित्रम्) = पवित्र हृदय को (अत्येति) = अतिशयेन प्राप्त होता है। हृदय की पवित्रता ही सोम को शरीर में सुरक्षित रखती है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम हमारे जीवनों को यज्ञमय बनाता हुआ हमारे प्रत्येक कोश को उस-उस धन से परिपूर्ण करता है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञस्य, केतुः) परमात्मा ज्ञानयज्ञादीनां प्रज्ञापकोऽस्ति। (पवते) सर्वं पुनाति अपि च (स्वध्वरः) शोभनयज्ञकर्ता अस्ति। (सोमः) सोमस्वभावपरमात्मा (देवानां) विदुषां (निष्कृतं) संस्कृतान्यन्तःकरणानि प्राप्नोति। किम्भूतः परमात्मा (सहस्रधारः) अनन्तशक्तिसम्पन्नः (कोशम्) ज्ञानिपुरुष-स्यान्तःकरणं (पर्य्यर्षति) प्राप्नोति। स परमात्मा (पवित्रं) प्रत्येकपवित्रताम् (अत्येति) अतिक्रामति अर्थात् सर्वोपरि पवित्रोऽस्ति। किम्भूतः परमात्मा (वृषा) बलरूपः पुनः किम्भूतः (रोरुवत्) सर्वत्र शब्दायमानोऽस्ति ॥७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Soma is the mark and summit of yajna, ultimate master and prime yajamana of cosmic yajna free from hate and violence and, in love, it radiates to the pure and sanctified heart of the holy celebrants. It moves and manifests in the heart core of the soul in a thousand streams of shower and, generous and potent, it transcends all existential purity and power as absolute bliss.