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उ॒भ॒यत॒: पव॑मानस्य र॒श्मयो॑ ध्रु॒वस्य॑ स॒तः परि॑ यन्ति के॒तव॑: । यदी॑ प॒वित्रे॒ अधि॑ मृ॒ज्यते॒ हरि॒: सत्ता॒ नि योना॑ क॒लशे॑षु सीदति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ubhayataḥ pavamānasya raśmayo dhruvasya sataḥ pari yanti ketavaḥ | yadī pavitre adhi mṛjyate hariḥ sattā ni yonā kalaśeṣu sīdati ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒भ॒यतः॑ । पव॑मानस्य । र॒श्मयः॑ । ध्रु॒वस्य॑ । स॒तः । परि॑ । य॒न्ति॒ । के॒तवः॑ । यदि॑ । प॒वित्रे॑ । अधि॑ । मृ॒ज्यते॑ । हरिः॑ । सत्ता॑ । नि । योना॑ । क॒लशे॑षु । सी॒द॒ति॒ ॥ ९.८६.६

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:86» मन्त्र:6 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:13» मन्त्र:1 | मण्डल:9» अनुवाक:5» मन्त्र:6


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ध्रुवस्य) इस ध्रुव परमात्मा को (सतः) जो सर्वत्र विद्यमान है और (पवमानस्य) जो कि सबको पवित्र करनेवाला है, उसको (रश्मयः) ज्योतियें (उभयतः) दोनों लोकों में (परियन्ति) प्राप्त होती हैं। वे ज्योतियें (केतवः) सर्वोपरि होने से केतु के समान हैं। (यदि) जब (पवित्रे) पवित्र अन्तःकरण में (हरिः) परमात्मा (अधिमृज्यते) साक्षात्कार किया जाता है, तब (सत्ता) उसकी सत्ता (नि) निरन्तर (कलशेषु, योना) अन्तःकरण-स्थानों में (सीदति) विराजमान होती है ॥६॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष अपने अन्तःकरणों को सत्कर्म्म द्वारा शुद्ध बनाते हैं, उन्हीं के अन्तःकरणों में परमात्मा प्रतिबिम्बित होता है, अन्यों के नहीं  ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'उभयः पवमरान: ' सोम

पदार्थान्वयभाषाः - (उभयतः) = शरीर व हृदय दोनों स्थानों में (पवमानस्य) = पवित्र करते हुए, शरीर को (व्याधि) = से शून्य तथा मन को आधि से शून्य बनाते हुए (ध्रुवस्य सतः) = शरीर से अविचलित होते हुए सोम की (केतवः) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाली [कित् निवासे] (रश्मयः) = ज्ञान की किरणें (परियन्ति) = हमें प्राप्त होती हैं। (यत्) = जब (ईम्) = निश्चय से (हरिः) = वासनाओं का हरण करनेवाला सोम (पवित्रे) = इस पवित्र हृदय में (अधिमृज्यते) = आधिक्येन शुद्ध किया जाता है, तो (योना) = अपने उत्पत्ति स्थान इस शरीर में निसत्ता निश्चय से स्थिर होनेवाला कलशेषु इन सोलह कलाओं के आधारभूत शरीरों में सीदति स्थित होता है। शरीर में स्थित होने पर यह उसे सोलह कलाओं से सम्पन्न बनाता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - शरीर में सुक्षित सोम शरीर को व्याधि शून्य तथा हृदय को आधि शून्य बनाकर इसे ज्ञानरश्मियों से दीप्त करता है, यह सोम उसे सोलह कलाओं से सम्पन्न बनाता है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ध्रुवस्य) अस्य ध्रुवरूपपरमात्मनः कथम्भूतस्य तस्य (सतः) सर्वत्र विद्यमानस्य पुनः कथम्भूतस्य (पवमानस्य) सर्वं पवमानस्य। एवम्भूतस्य (रश्मयः) तेजांसि (उभयतः) इतश्चामुतश्च (परि, यन्ति) परिगच्छन्ति तानि तेजांसि (केतवः) सर्वोत्कृष्टत्वेन केतुतुल्यानि सन्ति। (यदि) यदा (पवित्रे) पूतान्तःकरणे (हरिः) परमात्मा (अधि, मृज्यते) साक्षात्क्रियते, तदा (सत्ता) तस्य सत्ता (नि) सततं (कलशेषु, योना) अन्तःकरणस्थानेषु (सीदति) विराजते ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The rays of the light of Soma, lord existent, immovable, pure and purifying, pervading over both earth and the skies, radiate all round. When it is felt and adored, exalted in the pure heart, then the sanctifier presence settles and abides in the sacred hearts of the celebrants, the real seat of its own love and choice.