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प्र ते॒ धारा॒ अत्यण्वा॑नि मे॒ष्य॑: पुना॒नस्य॑ सं॒यतो॑ यन्ति॒ रंह॑यः । यद्गोभि॑रिन्दो च॒म्वो॑: सम॒ज्यस॒ आ सु॑वा॒नः सो॑म क॒लशे॑षु सीदसि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra te dhārā aty aṇvāni meṣyaḥ punānasya saṁyato yanti raṁhayaḥ | yad gobhir indo camvoḥ samajyasa ā suvānaḥ soma kalaśeṣu sīdasi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र । ते॒ । धाराः॑ । अति॑ । अण्वा॑नि । मे॒ष्यः॑ । पु॒ना॒नस्य॑ । स॒म्ऽयतः॑ । य॒न्ति॒ । रंह॑यः । यत् । गोऽभिः॑ । इ॒न्दो॒ इति॑ । च॒म्वोः॑ । स॒म्ऽअ॒ज्यसे॑ । आ । सु॒वा॒नः । सो॒म॒ । क॒लशे॑षु । सी॒द॒सि॒ ॥ ९.८६.४७

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:86» मन्त्र:47 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:21» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:5» मन्त्र:47


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूपपरमात्मन् ! (यद्) जब आप (गोभिः) ज्ञानी पुरुषों द्वारा (चम्वोः) आध्यात्मिक वृत्तियों की सेना के सम्बन्ध में (समज्यसे) उपासना किये जाते हो, तब आप (आसुवानः) सर्वव्यापक (सोम) हे शान्तिस्वरूप परमात्मन् ! (कलशेषु) उपासकों के अन्तःकरणों में (सीदसि) विराजमान होते हो और (ते धाराः) तुम्हारी प्रेम की धारायें (अत्यण्वानि) जो सूक्ष्म हैं, (संयतः) संयमी पुरुष को (पुनानस्य) जो सदुपदेश द्वारा सबको पवित्र करनेवाला है उसको (यन्ति) प्राप्त होती हैं, जो प्रेमधारायें (रंहयः) गतिशील हैं ॥४७॥
भावार्थभाषाः - जब उपासक बाह्यवृत्तियों का निरोध करके अन्तर्मुख होकर परमात्मा का ध्यान करता है, तो वह परमात्मा के साक्षात्कार को अवश्यमेव प्राप्त होता है ॥४७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ब्रह्मशक्ति के सूक्ष्मतत्त्वों का ज्ञान

पदार्थान्वयभाषाः - हे सोम ! (पुनानस्य) = पवित्र किये जाते हुए (ते) = तेरे (संयतः) = सम्यक् शरीर में गति करते हुए [संयत किये गये] (ते) = तेरी (रंहय:) = वेगवती धारण [धारण शक्तियाँ] धारायें (मेष्यः) = सम्पूर्ण संसार को गति देनेवाली ब्रह्मशक्ति के (अण्वानि) = सूक्ष्म तत्त्वों को (प्र अतियन्ति) = खूब प्राप्त होती हैं । अर्थात् सोमरक्षण से उत्पन्न तीव्र बुद्धि के द्वारा संसार संचालिका ब्रह्मशक्ति के तत्त्वों को हम समझने लगते हैं। हे (इन्दो) = सोम ! (यद्) = जब (गोभिः) = इन ज्ञानवाणियों के द्वारा (चम्वोः) = द्यावापृथिवी में, मस्तिष्क व शरीर में तू (समज्यसे) = अलंकृत किया जाता है, अर्थात् स्वाध्याय के द्वारा वासनाओं से दूर रहकर तेरा रक्षण होता है और तू मस्तिष्क व शरीर को ही अलंकृत करनेवाला होता है, तो (सुवानः) = उत्पन्न किया जाता हुआ (सोम) = हे सोम ! तू कलशेषु इन शरीर कलशों में (आसीदसि) = समन्तात् - अंग-प्रत्यंग में स्थित होता है। उनमें स्थित होकर तू उनका धारण करता है, उन्हें शक्तिशाली बनाता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- पवित्र सोम की शरीर में सुरक्षित धारायें शरीर को स्वस्थ बनाती हैं और मस्तिष्क को सूक्ष्म तत्त्वों के ज्ञान से शोभित करती हैं।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (यत्) यदा त्वं (गोभिः) ज्ञानिभिः (चम्वोः) सेनासम्बन्धे (समज्यसे) उपसेव्यसे तदा त्वं (आ, सुवानः) सर्वव्यापकः (सोम) हे शान्तस्वभावपरमात्मन् ! (कलशेषु) उपासकानामन्तःकरणेषु (सीदसि) विराजसे अपि च (ते धाराः) तव प्रेमधाराः (अति, अण्वानि) याः सूक्ष्माः सन्ति। (संयतः) संयमिनं पुरुषं (पुनानस्य) यः सदुपदेशैः सर्वपावकोऽस्ति। तं (यन्ति) प्राप्नुवन्ति। याः प्रेमधाराः (रंहयः) गतिशीलास्सन्ति ॥४७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indu, Spirit of life and light of the world, Soma, pure and purifying, the streams of your creative power, extremely subtle, virile and generous, move united at the speed of thought when, between heaven and earth, you vibrate and radiate, one with the rays of the sun, and, inspiring, worshipped and consecrated within, you abide in the heart core of the realised souls.