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सो अग्रे॒ अह्नां॒ हरि॑र्हर्य॒तो मद॒: प्र चेत॑सा चेतयत॒त अनु॒ द्युभि॑: । द्वा जना॑ या॒तय॑न्न॒न्तरी॑यते॒ नरा॑ च॒ शंसं॒ दैव्यं॑ च ध॒र्तरि॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

so agre ahnāṁ harir haryato madaḥ pra cetasā cetayate anu dyubhiḥ | dvā janā yātayann antar īyate narā ca śaṁsaṁ daivyaṁ ca dhartari ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः । अग्रे॑ । अह्ना॑म् । हरिः॑ । ह॒र्य॒तः । मदः॑ । प्र । चेत॑सा । चे॒त॒य॒ते॒ । अनु॑ । द्युऽभिः॑ । द्वा । जना॑ । या॒तय॑न् । अ॒न्तः । ई॒य॒ते॒ । नरा॒ऽशंस॑म् । च॒ । दैव्य॑म् । च॒ । ध॒र्तरि॑ ॥ ९.८६.४२

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:86» मन्त्र:42 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:20» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:5» मन्त्र:42


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सः सोमः) उक्त गुणसम्पन्न परमात्मा (अह्नामग्रे) इस दिन-रात से पहले (हर्य्यतो हरिः) हरण करनेवाली शक्तियों का हरण करनेवाला था। (मदः) आनन्दस्वरूप था और (अनु द्युभिः) द्युभ्वादि लोकों को  (चेतसा) अपनी चैतन्यरूप शक्ति से (प्रचेतयते) गतिशील करनेवाला था (द्वा जना) कर्मयोगी और ज्ञानयोगी दोनों पुरुषों को (यातयन्) वेदविधि से प्रेरणा करके (अन्तरीयते) इस द्युलोक और पृथिवीलोक के मध्य में गतिशील है (च) और (नरा) उक्त दोनों पुरुषों को (शंसं) प्रशंसनीय (दैव्यं) दिव्य (च) और (धर्तरि) धारणा विषय में सर्वोपरि बनाता है ॥४२॥
भावार्थभाषाः - वह परमात्मा इस प्रकृति की नानाविध शक्तियों को संयोजन करता हुआ कर्मयोगी और ज्ञानयोगी दोनों प्रकार के पुरुषों को प्रशंसनीय बनाता है ॥४२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

चेतसा, द्युभिः

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) = वह (हर्यतः) = चाहने योग्य कमनीय (हरिः) = दुःखों का (हर्ता मदः) = उल्लास जनक सोम (अह्नां अग्रे) = दिनों के अग्रभाग में (चेतसा) = चिन्तन के द्वारा तथा (द्युभिः) = ज्ञान दीप्तियों के द्वारा (अनुप्रचेतयते) = अनुकूल प्रकृष्ट चेतना को उत्पन्न करता है । सोमरक्षक पुरुष प्रातः ध्यान व स्वाध्याय की वृत्तिवाला होता है इन ध्यान व स्वाध्याय के द्वारा यह सोम हमारे जीवन में प्रकृष्ट चेतन व ज्ञान को प्राप्त कराता है । (धर्तरि) = धारण करनेवाले के (अन्तः) = अन्दर यह सोम (नराशंसं) = मनुष्यों से प्रशंसनीय (च) = और (दैव्यम्) = दिव्यगुणों के जनक उभयविध (द्वा जना) = दोनों विकास के कारणभूत ऐश्वर्यों को (यातयन्) = प्राप्त कराता हुआ (ईयते) = गति करता है। 'नराशंस ऐश्वर्य' वह है जो सुपथ से कमाया जाकर उत्तम गृह के निर्माण का साधन बनता है। 'दैव्य ऐश्वर्य' ज्ञान है जो सब सद्गुणों के विकास का साधन होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सुरक्षित सोम चिन्तन व स्वाध्याय की वृत्ति को पैदा करता है । सोमरक्षक पुरुष धन को सदा सुपथ से कमाता है और ज्ञान के द्वारा सद्गुणों का अर्जन करता है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सः, सोमः) उक्तगुणसम्पन्नः परमात्मा (अह्नां, अग्रे) अस्मादहर्दिवात्प्राक् (हर्य्यतः, हरिः) हारकशक्तीनां हरणकारकः। (मदः) आनन्दस्वरूपः (अनु, द्युभिः) द्युभ्वादिलोकानां (चेतसा) निजचैतन्यरूपशक्त्या (प्र, चेतयते) गतिशीलकारकश्चासीत्। (द्वा, जना) कर्मयोगिनां ज्ञानयोगिनाञ्च (यातयन्) वेदविधिना प्रेरणां कृत्वा (अन्तः, ईयते) अस्य द्युलोकस्यापि च। पृथिवीलोकस्य मध्ये गतिशीलोऽस्ति। (च) पुनः (नरा) उक्तपुरुषद्वयं (शंसं) प्रशंसनीयं (दैव्यं) दिव्यं च (धर्तरि) धारणविषये सर्वोपरि निर्ममे ॥४२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - That Soma, dispeller of darkness in advance of the day, blissful and glorious Spirit, inspiring and exalting, illuminates with intelligence and enlightens with consciousness day by day. It moves within, rousing both men and women, high and low, general humanity and leading lights, and inspires all to acquire, intensify and maintain higher and higher intelligence and awareness both admirable and divine day by day.