'दिवो विष्टम्भः, उपमो विचक्षणः'
पदार्थान्वयभाषाः - हे (पवमान) = हमें पवित्र करनेवाले सोम ! तू (इषम्) = प्रभुप्रेरणा व (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति की (अभि) = ओर (अर्षसि) = गतिवाला होता है । सोमरक्षण से हम प्रभुप्रेरणा को सुनने योग्य बनते हैं । उस प्रेरणा को क्रियान्वित करने के लिये बल व प्राणशक्ति को प्राप्त करते हैं। (श्येनः न) = शंसनीय गतिवाले के समान (वंसु) = वासनाओं को पराजित करनेवाले अथवा प्रभु की उपासनावाले [वन्- संभजने] (कलशेषु) = इन शरीर कलशों में (सीदसि) = तू स्थित होता है । (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (मद्वा) = अतिशय आनन्द को करनेवाला (मदः) = उल्लास का जनक व (मद्य) = मस्ती को लानेवाला होता है । (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ तू (दिवः विष्टम्भ) = ज्ञान का धारक है, (उपमा) = उपासना द्वारा प्रभु का ज्ञान प्राप्त करनेवाला है [उपमाति] तथा (विचक्षणः) = विशेषण द्रष्टा है, हमारा ध्यान करनेवाला है । यह सोम ही तो हमारे शरीरों को नीरोग, हृदयों को पवित्र तथा मस्तिष्क को दीप्त बनाता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें प्रभु प्रेरणा को सुननेवाला बल व प्राणशक्तिवाला शंसनीय गतिवाला उल्लासमय ज्ञानधारक बनाता है यह सब प्रकार से हमारा ध्यान करता है ।