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प॒वित्रं॑ ते॒ वित॑तं ब्रह्मणस्पते प्र॒भुर्गात्रा॑णि॒ पर्ये॑षि वि॒श्वत॑: । अत॑प्ततनू॒र्न तदा॒मो अ॑श्नुते शृ॒तास॒ इद्वह॑न्त॒स्तत्समा॑शत ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pavitraṁ te vitatam brahmaṇas pate prabhur gātrāṇi pary eṣi viśvataḥ | ataptatanūr na tad āmo aśnute śṛtāsa id vahantas tat sam āśata ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प॒वित्र॑म् । ते॒ । विऽत॑तम् । ब्र॒ह्म॒णः॒ । प॒ते॒ । प्र॒ऽभुः । गात्रा॑णि । परि॑ । ए॒षि॒ । वि॒श्वतः॑ । अत॑प्तऽतनूः । न । तत् । आ॒मः । अ॒श्नु॒ते॒ । शृ॒तासः॑ । इत् । वह॑न्तः । तत् । सम् । आ॒श॒त॒ ॥ ९.८३.१

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:83» मन्त्र:1 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:8» मन्त्र:1 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब तितिक्षा का उपदेश किया जाता है।

पदार्थान्वयभाषाः - (ब्रह्मणस्पते) हे वेदों के पति परमात्मन् ! (ते) तुम्हारा स्वरूप (पवित्रं) पवित्र है और (विततं) विस्तृत है। (प्रभुः) आप सबके स्वामी हैं और (विश्वतः, गात्राणि) सब मूर्त पदार्थों के (पर्येषि) चारों ओर व्यापक हैं। (अतप्ततनूः) जिसने अपने शरीर से तप नहीं किया, (तदामः) वह पुरुष कच्चा है। वह तुम्हारे आनन्द को (न, अश्नुते) नहीं भोग सकता। (शृतास इत्) अनुष्ठानी पुरुष ही (वहन्तः) तुमको प्राप्त हो सकते हैं। वे (तत्) तुम्हारे आनन्द को (समाशत) भोग सकते हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में तप का वर्णन स्पष्ट रीति से किया गया है। जो लोग तपस्वी हैं, वे ही परमात्मा को प्राप्त हो सकते हैं, अन्य नहीं। यहाँ शरीर का तप एक उपलक्षणमात्र है। वास्तव में आध्यात्मिकादि सब प्रकार के तपों का यहाँ ग्रहण है ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

तपस्या से सोमरक्षण

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (ब्रह्मणस्पते) = हमारे जीवनों में ज्ञान के रक्षक सोम ! (ते) = तेरा (पवित्रम्) = पावक सामर्थ्य (विततम्) = विस्तृत है। तू शक्ति, मन, व बुद्धि सभी को पवित्र करनेवाला है । (प्रभुः) = तू इस सब पवित्रता के कार्य को करने का सामर्थ्य रखता है। तू (विश्वतः) = सब ओर (गात्राणि पर्येषि) = शक्ति के अंग-प्रत्यंग में व्याप्त होता है, सब अंगों में व्याप्त होकर तू उनकी दुर्बलता को दूर करके उन्हें सबल बनाता है। [२] (अतप्ततनूः) = जिसने अपने शरीर को तप की अग्नि में नहीं तपाया और अतएव (आमः) = अपरिपक्व है वह (तद्) = उस सोम को (न अश्नुते) = अपने अन्दर व्याप्त नहीं कर पाता । (शृतासः) = तपस्या की अग्नि में परिपक्व होनेवाले लोग ही (इत्) = निश्चय से (वहन्तः) = इस सोम का धारण करते हुए (तत् समाशत) = उसे अपने अन्दर सम्यक् व्याप्त करते हैं [व्याप्तुवन्ति सा० ] ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण तपस्या के होने पर ही सम्भव है, सुरक्षित सोम सब अंग-प्रत्यंगों को पवित्र करता है ।
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आर्यमुनि

अथ तितिक्षोपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (ब्रह्मणस्पते) हे वेदपते परमात्मन् ! (ते) तावकं स्वरूपं (पवित्रम्) पूतमस्ति। अथ च (विततम्) विस्तृतमपि वर्तते। भवान् (प्रभुः) सर्वेषां स्वामी। तथा (विश्वतः, गात्राणि) सकलमूर्तपदार्थानां (पर्येषि) परितो व्यापकोऽस्ति। अथ च (अतप्ततनूः) यो हि तपो रहितोऽसि (तदामः) स अपरिपक्वबुद्धिस्तवानन्दं (नाश्नुते) न भोक्तुं शक्नोति। (शृतास इत्) तपस्वी जन एव (वहन्तः) त्वां प्राप्स्यन्ति। ते (तत्) भवदानन्दं (समाशत) भोक्ष्यन्ति ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Vast and expansive is your holy creation of existence and the voice divine, O Brhaspati, lord of expansive universe. You are the master and supreme controller who pervade and transcend its parts from the particle to the whole. The immature man who has not passed through the crucibles of discipline cannot reach to that presence, but the mature and seasoned ones who still maintain the ordeal of fire and abide by the presence attain to it and the divine joy.