इन्द्रियदमन [ममहिनं पर्येषि]
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू (कविः) = क्रान्त होता हुआ (वेधस्या) = उस विधाता प्रभु की प्राप्ति की कामना से (माहिनम् पर्येषि) = [power, dominion ] इन्द्रियों के आदित्य को, इन्द्रियों के दमन की शक्ति को प्राप्त करता है । (मृष्ट) = शुद्ध किया गया तू (अत्यः न) = सततगामी अश्व के समान (वाजम् अभि अर्षसि) = शक्ति और गतिवाला होता है। जैसे घोड़े की मालिश होने पर वह तरोताजा होकर शक्तिसम्पन्न हो जाता है, इसी प्रकार वासनाओं के विनाश के द्वारा परिशुद्ध सोम हमें शक्ति - सम्पन्न बनाता है । [२] शक्तिशाली बनाकर सब (दुरिता) = दुरितों को, अभद्रों को, (अपसेधन्) = दूर करते हुए, हे सोम ! तू हमें (मृडयः) = सुखी कर (घृतं वसानः) = ज्ञानदीप्ति को धारण कराता हुआ तू (निर्णिजम्) = शोधन व पुष्टि को (परियासि) = चारों ओर प्राप्त कराता है । इस सोम के रक्षण से शरीर ज्ञानदीप्ति से चमक उठता है, इसका अंगप्रत्यंग निर्मल व पुष्ट हो जाता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण से हमारी बुद्धि तीव्र होती है, हमारे में प्रभु प्राप्ति की कामना उत्पन्न होती है, हम इन्द्रियदमन करते हुए शक्तिशाली बनते हैं । दुरित दूर होते हैं । प्रकाश के साथ पुष्टि प्राप्त होती है ।