'ऋतेन देवान् हवते दिवस्परि'
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (नृचक्षसः) = मनुष्यों को देखनेवाले, उनका ध्यान करनेवाले, (सोमस्य) = सोम की (धारा) = धारणशक्ति हमें (पवते) = प्राप्त होती है। यह सोम (ऋतेन) = ऋत के द्वारा, यज्ञादि कर्मों में हमें प्रवृत्त करने के द्वारा, (दिवः परि) = द्युलोक के ऊपर, अर्थात् ज्ञानशिखर पर हमें पहुँचाकर (देवान् हवते) = देवों को पुकारता है, हमारे अन्दर दिव्य गुणों का धारण करता है। इस सोमरक्षण से- [क] हमारा शरीर यज्ञादि कर्मों में लगता है, [ख] मस्तिष्क ज्ञानवृद्धि में तत्पर होता है, [ग] और हृदय दिव्य गुणों का अधिष्ठान बनता है। [२] सोमरक्षण से जब हृदय दिव्यगुणों का अधिष्ठान बनता है, तो यह (बृहस्पतेः) = उस ज्ञान के स्वामी प्रभु के (रवथेन) = प्रेरणात्मक शब्दों से (विदिद्युते) = चमक उठता है । ये प्रभु प्रेरणा को सुननेवाले व्यक्ति (समुद्रासः न) = ज्ञान के समुद्र से बने हुए (सवनानि) = जीवन के तीनों सवनों को (विव्यचुः) = विस्तृत करते हैं। ये प्रथम २४ वर्ष के प्रातः सवन, अगले ४४ वर्षों के माध्यनिन्दनसवन तथा अन्तिम ४८ वर्षों के तृतीयसवन को सुन्दरता से बिताते हुए एक सौ सोलह वर्ष के दीर्घजीवन को प्राप्त करते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सुरक्षित सोम हमारे हाथों में यज्ञों, मस्तिष्क में ज्ञान तथा हृदय में दिव्यगुणों को स्थापित करता है । उस समय हमारा हृदय प्रभु-प्रेरणा से दीप्त हो उठता है। हम ज्ञान-समुद्र बनकर दीर्घजीवन को बितानेवाले बनते हैं ।