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सोम॑स्य॒ धारा॑ पवते नृ॒चक्ष॑स ऋ॒तेन॑ दे॒वान्ह॑वते दि॒वस्परि॑ । बृह॒स्पते॑ र॒वथे॑ना॒ वि दि॑द्युते समु॒द्रासो॒ न सव॑नानि विव्यचुः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

somasya dhārā pavate nṛcakṣasa ṛtena devān havate divas pari | bṛhaspate ravathenā vi didyute samudrāso na savanāni vivyacuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सोम॑स्य । धारा॑ । प॒व॒ते॒ । नृ॒ऽचक्ष॑सः । ऋ॒तेन॑ । दे॒वान् । ह॒व॒ते॒ । दि॒वः । परि॑ । बृह॒स्पतेः॑ । र॒वथे॑न । वि । दि॒द्यु॒ते॒ । स॒मु॒द्रासः॑ । न । सव॑नानि । वि॒व्य॒चुः॒ ॥ ९.८०.१

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:80» मन्त्र:1 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:5» मन्त्र:1 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब परमात्मा के ऐश्वर्य्य को प्रकारान्तर से निरूपण करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (नृचक्षसः) परमात्मा के उपासक लोगों के लिये (सोमस्य) सर्वोत्पादक परमात्मा की (धारा) आनन्दमय वृष्टि (पवते) पवित्र करती है और (दिवः देवान्) ज्ञानेच्छुक विद्वान् लोगों को (ऋतेन) शास्त्रीय सत्य द्वारा (परि) सब ओर से (पवते) परमात्मा पवित्र करता है। (बृहस्पतेः) वाणियों के पति विद्वान् को परमात्मा (रवथेन) शब्द से (विदिद्युते) प्रकाशित करता है। (न) जिस प्रकार (समुद्रासः) अन्तरिक्षलोक (सवनानि) यज्ञों का (विव्यचुः) विस्तार करते हैं, इसी प्रकार शब्दविद्या के वेत्ता विद्वान् परमात्मा के ऐश्वर्य्य का विस्तार करते हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य को चाहिये कि प्रथम शब्दब्रह्म का ज्ञाता बने, फिर मुख्य ब्रह्म का ज्ञाता बनकर लोगों को सदुपदेश दे ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'ऋतेन देवान् हवते दिवस्परि'

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (नृचक्षसः) = मनुष्यों को देखनेवाले, उनका ध्यान करनेवाले, (सोमस्य) = सोम की (धारा) = धारणशक्ति हमें (पवते) = प्राप्त होती है। यह सोम (ऋतेन) = ऋत के द्वारा, यज्ञादि कर्मों में हमें प्रवृत्त करने के द्वारा, (दिवः परि) = द्युलोक के ऊपर, अर्थात् ज्ञानशिखर पर हमें पहुँचाकर (देवान् हवते) = देवों को पुकारता है, हमारे अन्दर दिव्य गुणों का धारण करता है। इस सोमरक्षण से- [क] हमारा शरीर यज्ञादि कर्मों में लगता है, [ख] मस्तिष्क ज्ञानवृद्धि में तत्पर होता है, [ग] और हृदय दिव्य गुणों का अधिष्ठान बनता है। [२] सोमरक्षण से जब हृदय दिव्यगुणों का अधिष्ठान बनता है, तो यह (बृहस्पतेः) = उस ज्ञान के स्वामी प्रभु के (रवथेन) = प्रेरणात्मक शब्दों से (विदिद्युते) = चमक उठता है । ये प्रभु प्रेरणा को सुननेवाले व्यक्ति (समुद्रासः न) = ज्ञान के समुद्र से बने हुए (सवनानि) = जीवन के तीनों सवनों को (विव्यचुः) = विस्तृत करते हैं। ये प्रथम २४ वर्ष के प्रातः सवन, अगले ४४ वर्षों के माध्यनिन्दनसवन तथा अन्तिम ४८ वर्षों के तृतीयसवन को सुन्दरता से बिताते हुए एक सौ सोलह वर्ष के दीर्घजीवन को प्राप्त करते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सुरक्षित सोम हमारे हाथों में यज्ञों, मस्तिष्क में ज्ञान तथा हृदय में दिव्यगुणों को स्थापित करता है । उस समय हमारा हृदय प्रभु-प्रेरणा से दीप्त हो उठता है। हम ज्ञान-समुद्र बनकर दीर्घजीवन को बितानेवाले बनते हैं ।
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आर्यमुनि

अथ परमात्मन ऐश्वर्यं प्रकारान्तरेण निरूप्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (नृचक्षसः) परमात्मन उपासकान् (सोमस्य) सर्वोत्पादकस्य परमेश्वरस्य (धारा) आमोदमयी वृष्टिः (पवते) पुनाति। अथ च (दिवः देवान्) ज्ञानेप्सून् विद्वज्जनान् (ऋतेन) सत्येन (परि) परितः (पवते) परमात्मा पवित्रयति (बृहस्पतेः) वाक्पतिं विद्वांसं जगदीश्वरः (रवथेन) शब्दद्वारा (विदिद्युते) प्रकाशयति (न) यथा (समुद्रासः) अन्तरिक्षलोकाः (सवनानि) यज्ञानां (विव्यचुः) विस्तारं कुर्वन्ति। तथा शाब्दिका विद्वांसः परमात्मन ऐश्वर्यं तन्वते ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The stream of soma, light and bliss of divinity, flows free. It purifies, sanctifies, embraces and enlightens all humanity and arouses the divinities with the yajnic call of divine law. It vibrates and shines with the voice of omniscient lord transcendent, Brhaspati, and, like the vaulting oceans and expansive space, the generative vibrations of divinity extend beyond the lights of heaven.