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ए॒वा त॑ इन्दो सु॒भ्वं॑ सु॒पेश॑सं॒ रसं॑ तुञ्जन्ति प्रथ॒मा अ॑भि॒श्रिय॑: । निदं॑निदं पवमान॒ नि ता॑रिष आ॒विस्ते॒ शुष्मो॑ भवतु प्रि॒यो मद॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

evā ta indo subhvaṁ supeśasaṁ rasaṁ tuñjanti prathamā abhiśriyaḥ | nidaṁ-nidam pavamāna ni tāriṣa āvis te śuṣmo bhavatu priyo madaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒व । ते॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । सु॒ऽभ्व॑म् । सु॒ऽपेश॑सम् । रस॑म् । तु॒ञ्ज॒न्ति॒ । प्र॒थ॒माः । अ॒भि॒ऽश्रियः॑ । निद॑म्ऽनिदम् । प॒व॒मा॒न॒ । नि । ता॒रि॒षः॒ । आ॒विः । ते॒ । शुष्मः॑ । भ॒व॒तु॒ । प्रि॒यः । मदः॑ ॥ ९.७९.५

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:79» मन्त्र:5 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:4» मन्त्र:5 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दो) हे परमैश्वर्य्ययुक्त परमात्मन् ! (ते एव) तुम्हारा ही (सुपेशसम्) रूप (सुभ्वम्) सुन्दर है। (अभिश्रियः) तुम्हारे उपासक लोग (प्रथमाः) मुख्य (रसम्) आनन्द को (तुञ्जन्ति) ग्रहण करते हैं। (पवमान) हे सबको पवित्र करनेवाले परमात्मन् ! (निदं निदम्) प्रत्येक निन्दक को आप (नितारिषः) नाश करते हैं और (ते) तुम्हारा (शुष्मः) बल (प्रियः) जो सबका प्रिय करनेवाला है (मदः) और आनन्द देनेवाला है, वह (आविः भवतु) प्रकट हो ॥५॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा का आनन्द परमात्मयोगियों के लिये सदैव आह्लादक है और दुराचारी दुष्टों के लिये परमात्मा का बल नाश का हेतु है, इसलिये परमात्मपरायण पुरुषों को चाहिये कि वे सदैव परमात्मा के नियमों के पालन में तत्पर रहें ॥५॥ यह ७९ वाँ सूक्त और ४ वाँ वर्ग समाप्त हुआ।
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सोम का 'सुभू सुपेशस् ' रस

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (एवा) = गत मन्त्र में वर्णित प्रकार से, हे (इन्दो) = सोम ! (ते) = तेरे (सुभ्वम्) = शरीर, मन व बुद्धि को उत्तम करनेवाले [सु-भू] (सुपेशसम्) = अंग-प्रत्यंग की रचना को सुन्दर बनानेवाले (रसम्) = रस को, सार को (प्रथमा:) = अपनी शक्तियों व ज्ञानों का विस्तार करनेवाले (अभि-श्रियः) = प्रातः - सायं प्रभु का उपासन करनेवाले लोग [ श्रि = भज सेवायाम्] (तुञ्जन्ति) = अपने अन्दर प्रेरित करते हैं । सोमरक्षण का उपाय है— [क] प्रथम बनना, [ख] अभि- श्री बनना। इसका लाभ यह है कि- [क] शरीर, मन और बुद्धि उत्तम होते हैं, [ख] सर्वांग सुन्दर रचनावाला शरीर बनता है। [२] हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले सोम ! (निदं निदम्) = जो कुछ निन्दनीय है, उसे (नितारिषः) = नष्ट कर। (ते) = तेरा (शुष्मः) = शत्रु-शोषक बल (आविः भवतु) = प्रकट हो, जो (प्रियः) = प्रीति को देनेवाला तथा (मदः) = उल्लास का जनक है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण वही कर पाता है जो अपना लक्ष्य 'प्रथम स्थान में पहुँचना रखे तथा प्रातः सायं प्रभु का उपासन करे।' रक्षित सोम सब निन्दनीय तत्त्वों को विनष्ट करता है और प्रीति श्व उल्लास को प्राप्त कराता है। सोमरक्षण से अपने निवास को उत्तम बनानेवाला 'वसु' अगले सूक्त का ऋषि है, यह अपने में शक्ति को भरने के कारण 'भारद्वाज' है। यह कहता है कि-
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दो) हे परमैश्वर्य्ययुक्तपरमात्मन् ! (ते एव) तवैव (सुपेशसम्) रूपं (सुभ्वम्) सुन्दरमस्ति (अभिश्रियः) त्वदुपासकाः (प्रथमाः) मुख्यं (रसम्) आनन्दं (तुञ्जन्ति) गृह्णन्ति (पवमान) हे सर्वपवित्रकारक परमात्मन् ! (निदं निदम्) प्रतिनिन्दकं भवान् (नितारिषः) विनाशयतु। पुनः (ते) तव (शुष्मः) बलं (प्रियः) यः सर्वप्रियकर्ता (मदः) आनन्ददातास्ति सः (आविः भवतु) प्रादुर्भवतु ॥५॥ इत्येकोनाशीतितमं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः।
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Soma, bright and blissful divine spirit of existence, pure and purifying power, thus do veteran devotees of noble dedicated mind distil the gracious, delicious and inspiring bliss of divine joy. Pray dispel the malice of all malignant minds so that your dear delightful power and bliss shines pure and bright every where in every living being.