सोम का 'सुभू सुपेशस् ' रस
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (एवा) = गत मन्त्र में वर्णित प्रकार से, हे (इन्दो) = सोम ! (ते) = तेरे (सुभ्वम्) = शरीर, मन व बुद्धि को उत्तम करनेवाले [सु-भू] (सुपेशसम्) = अंग-प्रत्यंग की रचना को सुन्दर बनानेवाले (रसम्) = रस को, सार को (प्रथमा:) = अपनी शक्तियों व ज्ञानों का विस्तार करनेवाले (अभि-श्रियः) = प्रातः - सायं प्रभु का उपासन करनेवाले लोग [ श्रि = भज सेवायाम्] (तुञ्जन्ति) = अपने अन्दर प्रेरित करते हैं । सोमरक्षण का उपाय है— [क] प्रथम बनना, [ख] अभि- श्री बनना। इसका लाभ यह है कि- [क] शरीर, मन और बुद्धि उत्तम होते हैं, [ख] सर्वांग सुन्दर रचनावाला शरीर बनता है। [२] हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले सोम ! (निदं निदम्) = जो कुछ निन्दनीय है, उसे (नितारिषः) = नष्ट कर। (ते) = तेरा (शुष्मः) = शत्रु-शोषक बल (आविः भवतु) = प्रकट हो, जो (प्रियः) = प्रीति को देनेवाला तथा (मदः) = उल्लास का जनक है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण वही कर पाता है जो अपना लक्ष्य 'प्रथम स्थान में पहुँचना रखे तथा प्रातः सायं प्रभु का उपासन करे।' रक्षित सोम सब निन्दनीय तत्त्वों को विनष्ट करता है और प्रीति श्व उल्लास को प्राप्त कराता है। सोमरक्षण से अपने निवास को उत्तम बनानेवाला 'वसु' अगले सूक्त का ऋषि है, यह अपने में शक्ति को भरने के कारण 'भारद्वाज' है। यह कहता है कि-