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चक्रि॑र्दि॒वः प॑वते॒ कृत्व्यो॒ रसो॑ म॒हाँ अद॑ब्धो॒ वरु॑णो हु॒रुग्य॒ते । असा॑वि मि॒त्रो वृ॒जने॑षु य॒ज्ञियोऽत्यो॒ न यू॒थे वृ॑ष॒युः कनि॑क्रदत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

cakrir divaḥ pavate kṛtvyo raso mahām̐ adabdho varuṇo hurug yate | asāvi mitro vṛjaneṣu yajñiyo tyo na yūthe vṛṣayuḥ kanikradat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

चक्रिः॑ । दि॒वः । प॒व॒ते॒ । कृत्व्यः॑ । रसः॑ । म॒हान् । अद॑ब्धः । वरु॑णः । हु॒रुक् । य॒ते । असा॑वि । मि॒त्रः । वृ॒जने॑षु । य॒ज्ञियः॑ । अत्यः॑ । न । यू॒थे । वृ॒ष॒ऽयुः । कनि॑क्रदत् ॥ ९.७७.५

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:77» मन्त्र:5 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:2» मन्त्र:5 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (चक्रिः) वह पुरुष अनुष्ठानपरायण होता है और (दिवः) द्युलोक को (पवते) पवित्र करता है (कृत्व्यः) और कर्तव्यशील (रसः) आनन्दस्वरूप (महान्) बड़ा (अदब्धः) किसी से न दबाये जानेवाला परमेश्वर (हुरुग्यते) कुटिलता से चलनेवाले पुरुष को (वरुणः) अपने विद्याबल से आच्छादन करता है और (असावि) ज्ञानरूपी बल को उत्पन्न करता है (मित्रः) सर्वमित्र है (वृजनेषु) सब विषयों में (अत्यः) गमन कर सकता है (यज्ञियः) और यज्ञसम्बन्धी कर्म्मों में योग्य (वृषयुः) सब कामनाओं के (यूथे) देनेवाले गण के (न) समान (कनिक्रदत्) गर्जता हुआ इस संसार में यात्रा करता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् धीर, वीर, दृढव्रती और अपने विद्याप्रभाव से कुटिल वा मायावी पुरुषों को दबाने की शक्ति रखता है। वह इस मनुष्यसमाज में वृषभ के समान गर्जता हुआ अपने सदाचारी समाज की रक्षा करता है ॥५॥ यह ७७ वाँ सूक्त और दूसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'अदब्धः वरुणः ' सोमः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (दिवः चक्रि:) = हमारे जीवनों में ज्ञान के प्रकाश को करनेवाला यह सोम (पवते) = प्राप्त होता है। यह (रसः) = सोम का [सार] (कृत्व्यः) = हमें कर्त्तव्य कर्मों के करने में कुशल बनाता है। यह (महान्) = हमें [मह पूजायाम्] पूजा की वृत्तिवाला करता है। (अदब्धः) = वासनाओं से हिंसित नहीं होता । (वरुणः) = सब द्वेष आदि अशुभ वृत्तियों का निवारण करनेवाला है। [२] (हुरुग्यते) = [हुरुक्- हिरुक् near] प्रभु की उपासना में गति करते हुए के लिये यह सोम (असावि) = उत्पन्न किया जाता है । यह (जनेषु) = संग्रामों में (मित्रः) = हमारा मित्र होता है हमें मृत्यु से बचाता है, अतएव (यज्ञियः) = संगतिकरण योग्य होता है । (अत्यः न) = एक सततगामी अश्व के समान है, यह हमें निरन्तर क्रियाशील बनाता है। यूथे कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों व प्राणों के समूह में (वृषयुः) = शक्ति के सेचन को यह करने की कामनावाला है । ऐसा यह सोम (कनिक्रदत्) = खूब ही प्रभु के नामों का उच्चारण करता है। हमें प्रभु का स्तोता बनाता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - शरीर में सोम हमें वासनाओं से हिंसित नहीं होने देता, यह सब अशुभों का निवारण करनेवाला है। हमें शक्ति देता है, संग्रामों में विजयी बनाता है । अगले सूक्त में भी 'कवि' ही 'पवमान सोम का शंसन करता है'-
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (चक्रिः) स पुरुषः अनुष्ठानपरायणो भवति तथा (दिवः) द्युलोकं (पवते) पवित्रयति च। अथ च (कृत्व्यः) कर्तव्यशीलः (रसः) आमोदरूपः (महान्) बृहत् (अदब्धः) अदम्भनीयः परमेश्वरः (हुरुग्यते) कुटिलजनं (वरुणः) स्वीयविद्याबलेनाच्छादयति तथा (असावि) ज्ञानबलमुत्पादयति। (मित्रः) सर्वेभ्यः प्रियोऽस्ति। (वृजनेषु) सर्वत्र (अत्यः) गन्तुं शक्नोति। अथ च (यज्ञियः) यज्ञकर्मसु योग्यः (वृषयुः) सर्वासां कामनानां (यूथे) वर्षकगणः (न) इव (कनिक्रदत्) गर्जन् अस्मिन् संसारे यात्रां करोति ॥५॥ इति सप्तसप्ततितमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः।
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The creator of the universe flows omnipresent, purifies, sanctifies and blesses. Constant doer adorable, delight of the celebrants, great, undauntable, lord of judgement and choice, abandons men of crooked nature and behaviour and fulfils the mission of the holy. Friend on all paths of life, companionable, giver of fulfilment, He vibrates in the multitude of existence and roars like thunder in the depth of clouds.