पदार्थान्वयभाषाः - [१] (विश्वस्य) = सबका राजा दीप्त करनेवाला यह सोम (पवते) = प्राप्त होता है। शरीर में सुरक्षित हुआ-हुआ सोम 'शरीर, मन व बुद्धि' सभी को दीप्त करता है। (ऋषिषाट्) = [ऋषिः च असौ षाट् च] तत्त्वद्रष्टा व शत्रुओं का अभिभव करनेवाला यह सोम (स्वर्दृशः) = स्वयं देदीप्यमान ज्योतिरूप ब्रह्म के दर्शन करनेवाले (ऋतस्य) = सत्यव्रती पुरुष के (धीतिम्) = [ मतिं कर्म वा] बुद्धि व कर्म की (अवीवशत्) = कामना करता है । अर्थात् यह सोम हमें प्रभु द्रष्टा व सत्यव्रती बनाता है, हमारे कर्मों को इनके कर्मों जैसा बनाता है। [२] (यः) = जो सोम, (सूर्यस्य) = ज्ञानसूर्य के (आसिरेण) = क्षेपक बल से, मलों को दूर करनेवाली शक्ति से मृज्यते शुद्ध किया जाता है, सदा स्वाध्याय में लगे रहने से यह पवित्र बना रहता है। वह सोम मतीनां पिता हमारी बुद्धियों का रक्षक होता है और (असमष्ट काव्यः) = [ अ सम् अष्ट काव्य] अव्याप्त ज्ञानवाला, अर्थात् विशाल ज्ञानवाला होता है। वस्तुतः सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है, और हमारी ज्ञानाग्नि को खूब दीप्त करके हमारे ज्ञान को बढ़ानेवाला होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - यह सोम 'शरीर, मन व बुद्धि' सभी को दीप्त करता है। यह हमारे कर्मों को प्रभुद्रष्टा व सत्यव्रती पुरुषों के कर्म बनाता है। विशाल ज्ञानवाला है।