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विश्व॑स्य॒ राजा॑ पवते स्व॒र्दृश॑ ऋ॒तस्य॑ धी॒तिमृ॑षि॒षाळ॑वीवशत् । यः सूर्य॒स्यासि॑रेण मृ॒ज्यते॑ पि॒ता म॑ती॒नामस॑मष्टकाव्यः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viśvasya rājā pavate svardṛśa ṛtasya dhītim ṛṣiṣāḻ avīvaśat | yaḥ sūryasyāsireṇa mṛjyate pitā matīnām asamaṣṭakāvyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विश्व॑स्य । राजा॑ । प॒व॒ते॒ । स्वः॒ऽदृशः॑ । ऋ॒तस्य॑ । धी॒तिम् । ऋ॒षि॒षाट् । अ॒वी॒व॒श॒त् । यः । सूर्य॑स्य । असि॑रेण । मृ॒ज्यते॑ । पि॒ता । म॒ती॒नाम् । अस॑मष्टऽकाव्यः ॥ ९.७६.४

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:76» मन्त्र:4 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:1» मन्त्र:4 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:4


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वस्य राजा) सम्पूर्ण संसार का राजा परमात्मा (पवते) हमको पवित्र करता है। (ऋतस्य) सत्यवक्ता कर्मयोगी का तथा (स्वर्दृशः) सुख के ज्ञाता के (धीतिम्) कर्म को (अवीविशत्) चाहता है और परमात्मा (ऋषिषाट्) सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है तथा जो परमात्मा (सूर्यस्य) ज्ञान की (असिरेण) रश्मियों से (मृज्यते) साक्षात् किया जाता है और (मतीनाम्) समस्त ज्ञानों का (पिता) प्रदाता है तथा (असमष्टकाव्यः) कवियों की वाणी से परे है ॥४॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा सब ज्ञानों का केन्द्र है और उसको कोई ज्ञानविषय नहीं कर सकता, इसलिये वह अतीन्द्रिय है अर्थात् “यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह” उसको वाणी और मन दोनों ही विषय नहीं कर सकते। अर्थात् वह वाणी का लक्ष्यार्थ है, वाच्यार्थ नहीं ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'ऋषिषाट् ' सोम

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (विश्वस्य) = सबका राजा दीप्त करनेवाला यह सोम (पवते) = प्राप्त होता है। शरीर में सुरक्षित हुआ-हुआ सोम 'शरीर, मन व बुद्धि' सभी को दीप्त करता है। (ऋषिषाट्) = [ऋषिः च असौ षाट् च] तत्त्वद्रष्टा व शत्रुओं का अभिभव करनेवाला यह सोम (स्वर्दृशः) = स्वयं देदीप्यमान ज्योतिरूप ब्रह्म के दर्शन करनेवाले (ऋतस्य) = सत्यव्रती पुरुष के (धीतिम्) = [ मतिं कर्म वा] बुद्धि व कर्म की (अवीवशत्) = कामना करता है । अर्थात् यह सोम हमें प्रभु द्रष्टा व सत्यव्रती बनाता है, हमारे कर्मों को इनके कर्मों जैसा बनाता है। [२] (यः) = जो सोम, (सूर्यस्य) = ज्ञानसूर्य के (आसिरेण) = क्षेपक बल से, मलों को दूर करनेवाली शक्ति से मृज्यते शुद्ध किया जाता है, सदा स्वाध्याय में लगे रहने से यह पवित्र बना रहता है। वह सोम मतीनां पिता हमारी बुद्धियों का रक्षक होता है और (असमष्ट काव्यः) = [ अ सम् अष्ट काव्य] अव्याप्त ज्ञानवाला, अर्थात् विशाल ज्ञानवाला होता है। वस्तुतः सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है, और हमारी ज्ञानाग्नि को खूब दीप्त करके हमारे ज्ञान को बढ़ानेवाला होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - यह सोम 'शरीर, मन व बुद्धि' सभी को दीप्त करता है। यह हमारे कर्मों को प्रभुद्रष्टा व सत्यव्रती पुरुषों के कर्म बनाता है। विशाल ज्ञानवाला है।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वस्य राजा) समस्तसंसारस्य प्रभुः परमात्मा (पवते) अस्मान् पवित्रयति (ऋतस्य) सत्यवक्तुः कर्मयोगिनः (स्वर्दृशः) सुखज्ञातुः (धीतिम्) कर्म (अवीविशत्) वाञ्छति। स परमात्मा (ऋषिषाट्) सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरोऽस्ति। तथा (यः) यः परमेश्वरः (सूर्यस्य) ज्ञानस्य (असिरेण) रश्मिभिः (मृज्यते) साक्षात्क्रियते। अथ च (मतीनाम्) अखिलज्ञानानां (पिता) प्रदाता परमात्मा (असमष्टकाव्यः) वाचामगोचरोऽस्ति ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Soma is refulgent ruler of the world. It flows pure, purifying those who see the light divine. Loving, commanding, and illuminating the dynamics of nature unto waves and particles, seer of the seers as it is, exalted by sun beams, father generator and giver of knowledge, it transcends the vision and word of the wise and poet’s poetry.