पदार्थान्वयभाषाः - [१] यह सोम हमारे जीवनों में (शूरः न) = रथ शूरवीर के समान (गभस्त्योः) = भुजाओं में (आयुधा) = शस्त्रों को धत्ते धारण करता है। शूरवीर शस्त्रों के द्वारा शत्रुओं का शातन करता है, इसी प्रकार यह सोम, शरीरस्थ रोग आदि शत्रुओं का संहार करता है । (स्वः) = स्वयं देदीप्यमान ज्योति प्रभु को (शिषासन्) = सम्भजन की कामनावाला होता हुआ यह सोम (गविष्टिषु) = ज्ञान-यज्ञों में (रथिरः) = उत्तम रथवाला होता है। शरीर को स्वस्थ बनाता हुआ यह सोम हमें ज्ञानयुक्त करता है । सुरक्षित सोम शरीर में 'शूरः न', मन में 'स्वः सिषासन्' तथा मस्तिष्क में 'रथि गविष्टिषु' है । [२] यह सोम (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (शुष्मम्) = बल को (ईरयन्) = प्रेरित करता है। (अपस्युभिः) = कर्मशील पुरुषों से (इन्दुः) = यह सोम (हिन्वानः) = प्रेरित किया जाता है, कर्मशील पुरुष ही इसका रक्षण कर पाते हैं। यह (मनीषिभिः) = बुद्धिमान् पुरुषों से अज्यते शरीर में अलंकृत किया जाता है। इस प्रकार सोमरक्षण के तीन साधन हैं- [क] जितेन्द्रियता [इन्द्र], [ख] कर्मशीलता [अपस्यु], [ग] स्वाध्यायशीलता द्वारा बुद्धि को बलवान् बनाना [मनीषी] ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें शूर- प्रभु का उपासक व ज्ञानी बनाता है। 'जितेन्द्रियता, कर्मशीलता व स्वाध्याय' इसके रक्षण के साधन हैं ।