पदार्थान्वयभाषाः - [१] (द्युतानः) = ज्योति का विस्तार करनेवाला सोम (कलशान्) = इन १६ कलाओं के आधारभूत शरीरों को अब (अचिक्रदत्) = विषयों से पृथक् करके [अब] प्रभु-स्तवनवाला बनाता है [अचिक्रदत्- शब्दायते] । (नृभिः) = उन्नतिपथ पर चलनेवालों से (हिरण्यये कोशे) = ज्योतिर्मयकोश में, विज्ञानमयकोश में (आयेमानः) = संयत किया जाता है। अर्थात् शरीर में संयत सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर विज्ञानमयकोश को खूब दीप्त बना देता है, यह 'हिरण्यय' बन जाता है। [२] (ऋतस्य दोहना:) = ऋत का, सत्य का अपने में प्रपूरण करनेवाले लोग (ईम्) = निश्चय से (अभि अनूषत) = इस सोम का लक्ष्य करके स्तवन करते हैं। सोम का प्रात:सायं स्तवन उन्हें सोम के रक्षण के लिये प्रेरित करता है (त्रिपृष्ठ:) = प्रातः - सवन, माध्यन्दिन सवन व तृतीय सवन ये तीन सवन जिसके आधार हैं, अर्थात् इन तीनों बाल्य यौवन व वार्धक्य में यज्ञशील बनकर हम सोम का रक्षण कर पाते हैं। यह सोम (उषसः) = उषाओं को (विराजति) = विशिष्टरूप से दीप्त करता है । सोमरक्षण से हमारी उषायें बीतती हैं। सोमरक्षण वस्तुतः हमारे जीवन के दिनों को सुन्दर बनानेवाला है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम हमारे जीवनों में ज्योति को बढ़ाता है। यह हमें प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाला बनाता है और हमारे जीवन के दिनों को दीप्त करता है। सूचना - 'त्रिपृष्ठः' का भाव यह भी लिया जा सकता है कि जो हमारे बाल्य, यौवन व वार्धक्य तीनों का आधार बनता है अथवा जो शरीर, मन व बुद्धि इन तीनों को ठीक रखता है।