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ऋ॒तस्य॒ तन्तु॒र्वित॑तः प॒वित्र॒ आ जि॒ह्वाया॒ अग्रे॒ वरु॑णस्य मा॒यया॑ । धीरा॑श्चि॒त्तत्स॒मिन॑क्षन्त आश॒तात्रा॑ क॒र्तमव॑ पदा॒त्यप्र॑भुः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛtasya tantur vitataḥ pavitra ā jihvāyā agre varuṇasya māyayā | dhīrāś cit tat saminakṣanta āśatātrā kartam ava padāty aprabhuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒तस्य॑ । तन्तुः॑ । विऽत॑तः । प॒वित्रे॑ । आ । जि॒ह्वायाः॑ । अग्रे॑ । वरु॑णस्य । मा॒यया॑ । धीराः॑ । चि॒त् । तत् । स॒म्ऽइन॑क्षन्तः । आ॒श॒त॒ । अत्र॑ । क॒र्तम् । अव॑ । प॒दा॒ति॒ । अप्र॑ऽभुः ॥ ९.७३.९

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:73» मन्त्र:9 | अष्टक:7» अध्याय:2» वर्ग:30» मन्त्र:4 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:9


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अप्रभुः) जो पुरुष कर्मयोगी नहीं है, वह (कर्तम् अव पदाति) कर्मरूप मार्ग से गिर जाता है। (अत्र) इस कर्म में (धीराश्चित्) कर्मयोगी पुरुष ही (तत्) उसके समक्ष (समिनक्षन्तः) गतिशील होकर (आशत) स्थिर होते हैं। (ऋतस्य) सच्चाई का (तन्तुः) विस्तार करनेवाला (विततः) जो विस्तृत है, वह परमात्मा (वरुणस्य मायया) सबको वशीभूत रखनेवाली अपनी शक्ति के साथ (पवित्रे) उसके पवित्र अन्तःकरण में और (जिह्वाया अग्रे) जिह्वा के अग्रभाग में (आ) निवास करता है ॥९॥
भावार्थभाषाः - जो कर्मयोगी और उद्योगी पुरुष है, उन्हीं के अन्तःकरण में परमात्मा निवास करता है ॥९॥ यह ७३ वाँ सूक्त और ३० वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

कर्तं अवपदाति अप्रभुः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु ऋत के तन्तु हैं, सब लोक-लोकान्तरों को अपने प्रोत करनेवाले हैं 'मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव' । ये (ऋतस्य तन्तुः) = ऋत के सूत्र रूप प्रभु (पवित्रे) = पवित्र हृदय में (विततः) = विस्तृत व व्याप्त होते हैं । पवित्र हृदयवाले पुरुष में प्रभु का निवास होता है। इसकी (जिह्वाया:) = जिह्वा के अग्रे अग्रभाग में भी प्रभु ही आ [ विततः ] सदा विस्तृत होते हैं, अर्थात् यह जिह्वा से भी सदा प्रभु के नाम का उच्चारण करता है। [२] इस वरुणस्य सब बुराइयों का निवारण करनेवाले प्रभु की (मायया) = प्रज्ञा से (धीराः) = ये धीर पुरुष (तत् समिनक्षन्तः) = प्रभु को ही अपने में व्याप्त करते हुए (आशत) = कर्मों में व्याप्त होते हैं। हृदय में प्रभु का स्मरण करते हुए ही कर्मों को करते हैं। इसी कारण ये अपवित्र कर्मों की ओर नहीं झुकते । (अत्रा) = यहाँ (अ-प्रभुः) = हृदय में प्रभु को न आसीन करनेवाला व्यक्ति (कर्तं अवपदाति) = गड्ढे में नीचे की ओर जाता है। विषय- वासनाओं में फँसकर यह जीवन को विनष्ट कर लेता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हृदयों में प्रभु स्मरण हो, वाणी में प्रभु का नाम । इस प्रकार हमारे कर्म पवित्र होंगे। प्रभु को भूल जाने पर गड्ढे में गिरेंगे ही। प्रभु स्मरण करनेवाला उन्नति के लिये दढ़ निश्चयी पुरुष 'कक्षीवान्' है। यह कहता है कि-
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अप्रभुः) यो जनः कर्मयोगी नास्ति सः (कर्तम् अव पदाति) कर्ममार्गात् पतति (अत्र) कर्मण्यस्मिन् (धीराश्चित्) कर्मयोगिन एव (तत्) तत्समक्षं (समिनक्षन्तः) सङ्गच्छन्तः (आशत) स्थिरतां यान्ति। (ऋतस्य) सत्यस्य (तन्तुः) विस्तारकः (विततः) विस्तृतः परमेश्वरः (वरुणस्य मायया) सम्पूर्णजनवशकारिण्या स्वशक्त्या सह (पवित्रे) तस्य पवित्रेऽन्तःकरणे तथा (जिह्वाया अग्रे) जिह्वाग्रभागे (आ) आवसति। उपसर्गश्रुतेर्योग्यक्रियाध्याहारः ॥९॥ इति त्रिसप्ततितमं सूक्तं त्रिंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The web of Truth and Law is vast and universal. It extends enshrined in the pure at heart and speaks at the tip of the tongue by virtue of the wondrous power of Varuna, lord of love and justice, choice and discrimination. The brave, settled at heart and mind, receive it and follow it to self-fulfilment. The sceptics, dissenting and denying, fall from grace into negation and utter frustration.