पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु ऋत के तन्तु हैं, सब लोक-लोकान्तरों को अपने प्रोत करनेवाले हैं 'मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव' । ये (ऋतस्य तन्तुः) = ऋत के सूत्र रूप प्रभु (पवित्रे) = पवित्र हृदय में (विततः) = विस्तृत व व्याप्त होते हैं । पवित्र हृदयवाले पुरुष में प्रभु का निवास होता है। इसकी (जिह्वाया:) = जिह्वा के अग्रे अग्रभाग में भी प्रभु ही आ [ विततः ] सदा विस्तृत होते हैं, अर्थात् यह जिह्वा से भी सदा प्रभु के नाम का उच्चारण करता है। [२] इस वरुणस्य सब बुराइयों का निवारण करनेवाले प्रभु की (मायया) = प्रज्ञा से (धीराः) = ये धीर पुरुष (तत् समिनक्षन्तः) = प्रभु को ही अपने में व्याप्त करते हुए (आशत) = कर्मों में व्याप्त होते हैं। हृदय में प्रभु का स्मरण करते हुए ही कर्मों को करते हैं। इसी कारण ये अपवित्र कर्मों की ओर नहीं झुकते । (अत्रा) = यहाँ (अ-प्रभुः) = हृदय में प्रभु को न आसीन करनेवाला व्यक्ति (कर्तं अवपदाति) = गड्ढे में नीचे की ओर जाता है। विषय- वासनाओं में फँसकर यह जीवन को विनष्ट कर लेता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हृदयों में प्रभु स्मरण हो, वाणी में प्रभु का नाम । इस प्रकार हमारे कर्म पवित्र होंगे। प्रभु को भूल जाने पर गड्ढे में गिरेंगे ही। प्रभु स्मरण करनेवाला उन्नति के लिये दढ़ निश्चयी पुरुष 'कक्षीवान्' है। यह कहता है कि-