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ऋ॒तस्य॑ गो॒पा न दभा॑य सु॒क्रतु॒स्त्री ष प॒वित्रा॑ हृ॒द्य१॒॑न्तरा द॑धे । वि॒द्वान्त्स विश्वा॒ भुव॑ना॒भि प॑श्य॒त्यवाजु॑ष्टान्विध्यति क॒र्ते अ॑व्र॒तान् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛtasya gopā na dabhāya sukratus trī ṣa pavitrā hṛdy antar ā dadhe | vidvān sa viśvā bhuvanābhi paśyaty avājuṣṭān vidhyati karte avratān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒तस्य॑ । गो॒पाः । न । दभा॑य । सु॒ऽक्रतुः॑ । त्री । सः । प॒वित्रा॑ । हृ॒दि । अ॒न्तः । आ । द॒धे॒ । वि॒द्वान् । सः । विश्वा॑ । भुव॑ना । अ॒भि । प॒श्य॒ति॒ । अव॑ । अजु॑ष्टान् । वि॒ध्य॒ति । क॒र्ते । अ॒व्र॒तान् ॥ ९.७३.८

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:73» मन्त्र:8 | अष्टक:7» अध्याय:2» वर्ग:30» मन्त्र:3 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:8


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतस्य गोपाः) सचाई की रक्षा करनेवाला (सुक्रतुः) शोभन कर्मोंवाला कर्मयोगी (न दभाय) जो किसी से दबाया नहीं जाता (सः) वह (पवित्रा) अपने पवित्र (हृद्यन्तः) अन्तःकरण में (त्री) परमात्मा की उत्पति-स्थिति-प्रलयरूप तीनों शक्तियों को (आ दधे) धारण करता है। (स विद्वान्) वह विद्वान् पुरुष (विश्वा भुवना) सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों को (अभि पश्यति) देखता है और (कर्ते) कर्तव्य में (अव्रतान्) जो अव्रती (अजुष्टान्) और परमात्मा से वियुक्त हैं, उनको (अवविध्यति) मारता है ॥८॥
भावार्थभाषाः - जो लोग परमात्मा पर अटल विश्वास रखनेवाले हैं, वे किसी से दबाये नहीं जा सकते हैं ॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ऋतस्य गोपाः न दभाय

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (ऋतस्य) = ऋत का, सत्य व यज्ञ का (गोपाः) = रक्षक (न दभाय) = हिंसित नहीं होता । (स सुक्रतुः) = वह उत्तम कर्मों का करनेवाला (हृदि अन्तः) = हृदय के अन्दर भी (पवित्रा) = तीन पवित्र भावनाओं को - 'प्रेम, करुणा व त्याग की वृत्ति को' आदधे धारण करता है। इसके हृदय में 'काम' के स्थान में 'प्रेम' होता है, 'क्रोध' के स्थान में 'करुणा' तथा 'लोभ' के स्थान 'त्याग' की भावना होती है । [२] यह ऋत का रक्षक इस बात को नहीं भूलता कि विद्वान् ज्ञानी (सः) = वे (विश्वा भुवनानि) = सब लोकों को (पश्यन्) = देखते हुए प्रभु अजुष्टान् यज्ञादि कर्मों का प्रीतिपूर्वक सेवन न करनेवाले (अव्रतान्) = सब पुण्य कर्मों से रहित व्यक्तियों को कर्ते गड्ढे में (अवविध्यति) = अवाङ्मुख ताड़ित करते हैं, अर्थात् इन्हें आसुरी योनियों में जन्म देते हैं, असुर्य लोकों में डालते हैं। मनुष्य योनि को न प्राप्त करके ये पशु-पक्षियों की योनि में जाते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - ऋत [सत्य] के रक्षक के हृदय में 'प्रेम, करुणा व त्याग' होता है। यह इस बात का स्मरण रखता है कि प्रभु अव्रत लोगों को नीच योनियों में जन्म देते हैं।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतस्य गोपाः) सत्यस्य रक्षकः (सुक्रतुः) शोभनकर्मी (न दभाय) यः परैरदम्भनीयः (सः) असौ कर्मयोगी (पवित्रा) पवित्रे स्वकीये (हृद्यन्तः) अन्तःकरणे (त्री) परमात्मनः उत्पत्तिस्थितिप्रलयरूपास्तिस्रः शक्तीः (आ दधे) आदधाति। (स विद्वान्) असौ पण्डितः कर्मयोगी (विश्वा भुवना) सम्पूर्णानि लोकलोकान्तराणि (अभि पश्यति) अवलोकयति। अथ च (कर्ते) कर्तव्ये (अव्रतान्) अव्रतिनः (अजुष्टान्) परमात्मनो वियुक्तान् (अवविध्यति) हिनस्ति ॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The man of universal truth, guardian of law, is undaunted, he is not for fear, nor for deceit. Pure at heart and holy of action, he maintains that strength and purity in his threefold conduct in thought, word and deed. Man of knowledge, vision and practical wisdom, he overwatches the entire regions of the world, brings to book the sceptics and the uncommitted, and fixes the saboteurs and the violators of law.