'सम्यञ्चः - महिषाः - सिन्धोः ऊर्मी '
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (सम्यञ्चः) = सम्यक् गतिवाले, उत्तमता से कार्यों को करनेवाले, (महिषाः) = प्रभु के पूजक (सम्यक्) = अच्छी प्रकार (अहेषत) = सोम को शरीर में प्रेरित करते हैं । (वेना:) = प्रभु प्राप्ति की कामनावाले लोग (सिन्धोः ऊर्मी) = ज्ञान - समुद्र की तरंगों में इस सोम को (अधि अवीविपन्) = आधिक्येन कम्पित करते हैं । अर्थात् जैसे झाड़कर कपड़े की धूल को अलग किया जाता है, उसी प्रकार ज्ञान-तरंगों में झाड़कर इस सोम को पवित्र किया जाता है। ज्ञान-प्राप्ति में लगे रहने से वासनाओं का आक्रमण नहीं होता। वासनाएँ ही तो सोम को मलिन करती हैं । [२] (मधो:) = इस सारभूत मधुतुल्य सोम की (धाराभिः) = धारणशक्तियों से (अर्कम्) = उस अर्चनीय प्रभु को (जनयन्तः) = अपने में प्रादुर्भूत करते हुए ये उपासक (इत्) = निश्चय से इन्द्रस्य उस प्रभु की, प्रभु से दी गई (प्रियां तन्वम्) = प्रिय तनु को, शरीर को (अवीवृधन्) = बढ़ाते हैं । इस शरीर को सब शक्तियों से युक्त करते हैं । एवं सोम शरीर को सब शक्तियों से सम्पन्न करता हुआ प्रभु का दर्शन करानेवाला होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - उत्तम कर्मों में लगे रहना व पूजन सोमरक्षण के साधन हैं। स्वाध्याय में लगे रहने से यह सोम पवित्र बना रहता है। सोमरक्षण से प्रभु का दर्शन होता है और यह शरीर सब शक्तियों से सम्पन्न बनता है ।
अन्य संदर्भ: सूचना - मन्त्र में 'सम्यक् शब्द उत्तम कर्मों का संकेत करता है, 'महिषाः ' उपासना का तथा 'सिन्धोः ऊर्मी' ज्ञान का । एवं सोमरक्षण के लिये 'ज्ञान, कर्म, उपासना' तीनों का समन्वय आवश्यक है । ये तीनों क्रमश: Head, hands and heart [मस्तिष्क, हाथों व हृदय] को पवित्र करते हैं ।