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स॒म्यक्स॒म्यञ्चो॑ महि॒षा अ॑हेषत॒ सिन्धो॑रू॒र्मावधि॑ वे॒ना अ॑वीविपन् । मधो॒र्धारा॑भिर्ज॒नय॑न्तो अ॒र्कमित्प्रि॒यामिन्द्र॑स्य त॒न्व॑मवीवृधन् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samyak samyañco mahiṣā aheṣata sindhor ūrmāv adhi venā avīvipan | madhor dhārābhir janayanto arkam it priyām indrasya tanvam avīvṛdhan ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒म्यक् । स॒म्यञ्चः॑ । म॒हि॒षाः । अ॒हे॒ष॒त॒ । सिन्धोः॑ । ऊ॒र्मौ । अधि॑ । वे॒नाः । अ॒वी॒वि॒प॒न् । मधोः॑ । धारा॑भिः । ज॒नय॑न्तः । अ॒र्कम् । इत् । प्रि॒याम् । इन्द्र॑स्य । त॒न्व॑म् । अ॒वी॒वृ॒ध॒न् ॥ ९.७३.२

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:73» मन्त्र:2 | अष्टक:7» अध्याय:2» वर्ग:29» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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आर्यमुनि

अब असुरों की निन्दा करते हुए और कर्मयोगियों की प्रशंसा करते हुए कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (महिषाः) महान् पुरुष (सम्यञ्चः) संगतिवाले (सम्यक्) भली-भाँति (सिन्धोः ऊर्मौ अधि) इस संसाररूपी समुद्र में (वेनाः) अभ्युदय की अभिलाषा करनेवाले (अहेषत) बृद्धि को प्राप्त होते हैं और (अवीविपन्) दुष्टों को कम्पायमान करते हैं। (मधोः धाराभिः) ऐश्वर्य की धाराओं से (जनयन्तः) प्रकट होते हुए तथा (अर्कमित्) अर्चनीय परमात्मा को प्राप्त होते हुए (प्रियाम् इन्द्रस्य तन्वम्) ईश्वर के प्रिय ऐश्वर्य को (अवीवृधन्) बढ़ाते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो लोग परमात्मा के महत्त्व को धारण करके महान् पुरुष बनते हैं, वे इस भवसागर की लहरों से पार हो जाते हैं और परमात्मा के यश को गान करके अन्य लोगों को भी अभ्युदयशाली बनाकर इस भवसागर की धार से पार कर देते हैं ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'सम्यञ्चः - महिषाः - सिन्धोः ऊर्मी '

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (सम्यञ्चः) = सम्यक् गतिवाले, उत्तमता से कार्यों को करनेवाले, (महिषाः) = प्रभु के पूजक (सम्यक्) = अच्छी प्रकार (अहेषत) = सोम को शरीर में प्रेरित करते हैं । (वेना:) = प्रभु प्राप्ति की कामनावाले लोग (सिन्धोः ऊर्मी) = ज्ञान - समुद्र की तरंगों में इस सोम को (अधि अवीविपन्) = आधिक्येन कम्पित करते हैं । अर्थात् जैसे झाड़कर कपड़े की धूल को अलग किया जाता है, उसी प्रकार ज्ञान-तरंगों में झाड़कर इस सोम को पवित्र किया जाता है। ज्ञान-प्राप्ति में लगे रहने से वासनाओं का आक्रमण नहीं होता। वासनाएँ ही तो सोम को मलिन करती हैं । [२] (मधो:) = इस सारभूत मधुतुल्य सोम की (धाराभिः) = धारणशक्तियों से (अर्कम्) = उस अर्चनीय प्रभु को (जनयन्तः) = अपने में प्रादुर्भूत करते हुए ये उपासक (इत्) = निश्चय से इन्द्रस्य उस प्रभु की, प्रभु से दी गई (प्रियां तन्वम्) = प्रिय तनु को, शरीर को (अवीवृधन्) = बढ़ाते हैं । इस शरीर को सब शक्तियों से युक्त करते हैं । एवं सोम शरीर को सब शक्तियों से सम्पन्न करता हुआ प्रभु का दर्शन करानेवाला होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - उत्तम कर्मों में लगे रहना व पूजन सोमरक्षण के साधन हैं। स्वाध्याय में लगे रहने से यह सोम पवित्र बना रहता है। सोमरक्षण से प्रभु का दर्शन होता है और यह शरीर सब शक्तियों से सम्पन्न बनता है ।
अन्य संदर्भ: सूचना - मन्त्र में 'सम्यक् शब्द उत्तम कर्मों का संकेत करता है, 'महिषाः ' उपासना का तथा 'सिन्धोः ऊर्मी' ज्ञान का । एवं सोमरक्षण के लिये 'ज्ञान, कर्म, उपासना' तीनों का समन्वय आवश्यक है । ये तीनों क्रमश: Head, hands and heart [मस्तिष्क, हाथों व हृदय] को पवित्र करते हैं ।
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आर्यमुनि

अथासुरान्निन्दयन् कर्मयोगिनः प्रशंसयन्नाह।

पदार्थान्वयभाषाः - (महिषाः) महान्तो जनाः (वेनाः) अभ्युदयाभिलाषिणः (सम्यञ्चः) सङ्गतिमन्तः (सिन्धोः ऊर्मौ अधि) संसारसागरेऽस्मिन् (सम्यक्) सुतरां (अहेषत) वृद्धिं प्राप्नुवन्ति। अथ च (अवीविपन्) दुष्टान् कम्पयन्ति च। (मधोः धाराभिः) ऐश्वर्यस्य धाराभिः (जनयन्तः) प्रकटयन्तः (अर्कमित्) अर्चनीयं परमात्मानं प्राप्नुवन्तः (प्रियाम् इन्द्रस्य तन्वम्) ईश्वरस्य प्रियमैश्वर्यं (अवीवृधन्) वर्धयन्ति ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Mighty men, sages, scholars and leaders, wise, ambitious and good intentioned, holily all together stirring on top of the oceanic waves of existence, keep it moving fast and faster and, creating beautiful things, doing good work in honour of the lord creator, advance this dear world of the Almighty with streams of the honey sweets of soma.