पदार्थान्वयभाषाः - [१] (स्त्रक्वे) = इस उत्पन्न शरीर में (धमतः) = [ Throw away ] सब बुराइयों को परे फेंकते हुए (द्रप्सस्य) = सोमकणों का [Drop] (समस्वरन्) = सम्यक् स्तवन करते हैं। इस सोम के गुणों का स्मरण करते हुए व इसका रक्षण करते हुए (नाभयः) = [गह बन्धने] इस सोम को अपने अन्दर बाँधनेवाले (ऋतस्य योना) = ऋत के मूल उत्पत्ति स्थान प्रभु में (समरन्त) = गतिवाले होते हैं । [२] (सः) = वह सोम (आरभे) = सब कार्यों को ठीक से प्रारम्भ करने के लिये (त्रीन् मूर्ध्नः) = तीन समुच्छित लोकों को चक्रे करता है। शरीर को स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से शिखर पर पहुँचाता है, मन को निर्मलता के शिखर पर ले जाता है तथा मस्तिष्क को ज्ञानदीप्ति के शिखर पर एवं शरीर, मन व मस्तिष्क रूप पृथिवी, अन्तरिक्ष तथा द्युलोक को यह उन्नत करता है। यह सोम इस प्रकार (असुरः) = [ असून् राति] सब प्राणशक्तियों का संचार करनेवाला होता है। इस सोम के द्वारा हमारा जीवन असत् से दूर होकर सत् को प्राप्त होता है। अब शरीर में मृत्यु न होकर अमृतत्त्व है, मन में असत् न होकर सत् है, मस्तिष्क में तमस् न होकर ज्योति है ये (सत्यस्य नाव:) = सत्य की नौकायें (सुकृतम्) = पुण्यशाली व्यक्ति को (अपीपरन्) = इस भवसागर के पार ले जानेवाली होती हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम ही सब बुराइयों का दूर करनेवाला है, यह ही हमें प्रभु के समीप पहुँचाता है । सोम असत्य को दूर करके हमें 'स्वस्थ शरीर, निर्मल मन व दीप्त मस्तिष्क' प्राप्त कराता है । ये सत्य की नौकायें हमें भवसागर को तैरने में समर्थ करती हैं।