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नृबा॒हुभ्यां॑ चोदि॒तो धार॑या सु॒तो॑ऽनुष्व॒धं प॑वते॒ सोम॑ इन्द्र ते । आप्रा॒: क्रतू॒न्त्सम॑जैरध्व॒रे म॒तीर्वेर्न द्रु॒षच्च॒म्वो॒३॒॑रास॑द॒द्धरि॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nṛbāhubhyāṁ codito dhārayā suto nuṣvadham pavate soma indra te | āprāḥ kratūn sam ajair adhvare matīr ver na druṣac camvor āsadad dhariḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नृबा॒हुऽभ्या॑म् । चो॒दि॒तः । धार॑या । सु॒तः । अ॒नु॒ऽस्व॒धम् । प॒व॒ते॒ । सोमः॑ । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । आ । अ॒प्राः॒ । क्रतू॑न् । सम् । अ॒जैः॒ । अ॒ध्व॒रे । म॒तीः । वेः । न । द्रु॒ऽसत् । च॒म्वोः॑ । आ । अ॒स॒द॒त् । हरिः॑ ॥ ९.७२.५

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:72» मन्त्र:5 | अष्टक:7» अध्याय:2» वर्ग:27» मन्त्र:5 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (ते) तुमको (अनुष्वधम्) बल के लिये (सोमः) शान्तरूप परमात्मा (पवते) पवित्र करे। उक्त परमात्मा (नृबाहुभ्याम्) मनुष्यों के ज्ञान और कर्म द्वारा (चोदितः) प्रेरणा किया हुआ तथा (धारया) धारणारूप बुद्धि से (सुतः) साक्षात्कार किया हुआ पवित्र करे। उक्त परमात्मा के पवित्र किये हुए तुम (क्रतून् अप्राः) कर्मों को प्राप्त हो। (अध्वरे) धर्मयुद्ध में (मतीः) अभिमानी शत्रुओं को तुम (समजैः) भली-भाँति जीतो। (वेः न) जिस प्रकार विद्युत् (द्रुषत्) प्रत्येक गतिशील पदार्थों में स्थिर है, इसी प्रकार (हरिः) परमात्मा (चम्वोः) द्युलोक तथा पृथिवीलोकों में (आसदत्) स्थिर है ॥५॥
भावार्थभाषाः - कर्मयोगी उद्योगी पुरुष धर्मयुद्ध में अन्यायकारी शत्रुओं पर विजय पाते हैं और विद्युत् के समान सर्वव्यापक परमात्मा पर भरोसा रखकर इस संसार में अपनी गति करते हैं ॥५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

नृबाहुभ्यां चोदितः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (नृबाहुभ्यां चोदितः) = प्रगतिशील मनुष्य की बाहुओं से यह प्रेरित होता है, अर्थात् सदा क्रिया में तत्पर रहने से यह शरीर में ही व्याप्त होता है । (धारया) = धारण के हेतु से (सुतः) = यह उत्पन्न किया गया है, इसके धारण से ही शरीर का धारण होता है 'मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्' । हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! यह (सोमः) = सोम [वीर्यशक्ति] (सुतः) = उत्पन्न हुआ (ते पवते) = पवित्रता से तुझे प्राप्त होता है । [२] इस सोम को प्राप्त करके तू (क्रतून्) = प्रज्ञानों व शक्तियों को (आप्राः) = अपने में भरता है । (अध्वरे) = इस जीवन-यज्ञ में (मती:) = उत्कृष्ट बुद्धियों को समजैः सम्यक् जीतता है । उत्कृष्ट बुद्धियोंवाला तू बनता है। (द्रुषत् वेः न) = वृक्ष पर बैठनेवाले पक्षी की तरह (हरिः) = यह सब रोगों का हरण करनेवाला सोम (चम्वोः) = द्यावापृथिवी में, मस्तिष्क व शरीर में (आसदत्) = आसीन होता है। मस्तिष्क को यह सोम ज्ञानदीप्त बनाता है, तो इस पृथिवीरूप शरीर को यह दृढ़ बनानेवाला होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - क्रियाशीलता सोमरक्षण का साधन है। जितना जितना हम आत्मस्वरूप का चिन्तन करेंगे, उतना ही सोम हमारे में स्थिर रहेगा । सोम की स्थिरता हमारे 'प्रज्ञान व शक्ति' को भरती हुई हमारी बुद्धि का वर्धन करेगी।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (ते) त्वां (अनुष्वधम्) बलार्थं (सोमः) शान्तरूपः परमात्मा (पवते) पवित्रयतु। उक्तः परमेश्वरः (नृबाहुभ्याम्) मनुष्याणां ज्ञानेन कर्मणा च (चोदितः) प्रेरितः अथ च (धारया) धारणरूपबुद्ध्या (सुतः) साक्षात्कृतः सन् पवित्रयतु। उक्तपरमात्मना पवित्रितस्त्वं (क्रतून् आप्राः) कर्माणि प्राप्नुहि। (अध्वरे) धर्मयुद्धे (मतीः) अभिमानिनश्शत्रून् (समजैः) सम्यग्जय (वेः न) यथा विद्युत् (द्रुषत्) प्रतिगतिशीलपदार्थेषु स्थिराऽस्ति तथा (हरिः) पापहर्ता परमात्मा (चम्वोः) द्यावापृथिव्योः (आसदत्) स्थिरोऽस्ति ॥५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, O soul, the soma joy of divinity flows free for you, impelled by human arms of karma, showered in streams with resonant hymns. Move on to holy actions in yajna, and Soma, lord of peace and power, pervading in heaven and earth and the middle regions like cosmic energy and the dynamics of cause and effect, would fulfill your desires, intentions and resolutions of mind.