पदार्थान्वयभाषाः - [१] (नृबाहुभ्यां चोदितः) = प्रगतिशील मनुष्य की बाहुओं से यह प्रेरित होता है, अर्थात् सदा क्रिया में तत्पर रहने से यह शरीर में ही व्याप्त होता है । (धारया) = धारण के हेतु से (सुतः) = यह उत्पन्न किया गया है, इसके धारण से ही शरीर का धारण होता है 'मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्' । हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! यह (सोमः) = सोम [वीर्यशक्ति] (सुतः) = उत्पन्न हुआ (ते पवते) = पवित्रता से तुझे प्राप्त होता है । [२] इस सोम को प्राप्त करके तू (क्रतून्) = प्रज्ञानों व शक्तियों को (आप्राः) = अपने में भरता है । (अध्वरे) = इस जीवन-यज्ञ में (मती:) = उत्कृष्ट बुद्धियों को समजैः सम्यक् जीतता है । उत्कृष्ट बुद्धियोंवाला तू बनता है। (द्रुषत् वेः न) = वृक्ष पर बैठनेवाले पक्षी की तरह (हरिः) = यह सब रोगों का हरण करनेवाला सोम (चम्वोः) = द्यावापृथिवी में, मस्तिष्क व शरीर में (आसदत्) = आसीन होता है। मस्तिष्क को यह सोम ज्ञानदीप्त बनाता है, तो इस पृथिवीरूप शरीर को यह दृढ़ बनानेवाला होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - क्रियाशीलता सोमरक्षण का साधन है। जितना जितना हम आत्मस्वरूप का चिन्तन करेंगे, उतना ही सोम हमारे में स्थिर रहेगा । सोम की स्थिरता हमारे 'प्रज्ञान व शक्ति' को भरती हुई हमारी बुद्धि का वर्धन करेगी।