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अर॑ममाणो॒ अत्ये॑ति॒ गा अ॒भि सूर्य॑स्य प्रि॒यं दु॑हि॒तुस्ति॒रो रव॑म् । अन्व॑स्मै॒ जोष॑मभरद्विनंगृ॒सः सं द्व॒यीभि॒: स्वसृ॑भिः क्षेति जा॒मिभि॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aramamāṇo aty eti gā abhi sūryasya priyaṁ duhitus tiro ravam | anv asmai joṣam abharad vinaṁgṛsaḥ saṁ dvayībhiḥ svasṛbhiḥ kṣeti jāmibhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अर॑ममाणः । अति॑ । ए॒ति॒ । गाः । अ॒भि । सूर्य॑स्य । प्रि॒यम् । दु॒हि॒तुः । ति॒रः । रव॑म् । अनु॑ । अ॒स्मै॒ । जोष॑म् । अ॒भ॒र॒त् । वि॒न॒म्ऽगृ॒सः । सम् । द्व॒यीभिः॑ । स्वसृ॑ऽभिः । क्षे॒ति॒ । जा॒मिऽभिः॑ ॥ ९.७२.३

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:72» मन्त्र:3 | अष्टक:7» अध्याय:2» वर्ग:27» मन्त्र:3 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अरममाणः) जितेन्द्रिय कर्मयोगी (गाः) इन्द्रियों का (अत्येति) अतिक्रमण करता है। (सूर्यस्य प्रियं दुहितुः) सूर्य की प्रिय दुहिता उषा के (अभि) सम्मुख (तिरः रवम्) शब्दायमान होकर स्थिर होता है और वह कर्मयोगी (द्वयीभिः स्वसृभिः) कर्मयोग की दोनों वृत्तियें जो एक मन से उत्पन्न होने के कारण स्वसृभाव को धारण किये हुई हैं और (जामिभिः) जो युगलरूप से रहती हैं, उनसे (सङ्क्षेति) विचरता है। स्तोता (अस्मै) उस कर्मयोगी के लिये (जोषम् अनु अभरत्) प्रीति से सेवन करता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - जितेन्द्रिय पुरुष के यश को स्तोता लोग गान करते हैं, क्योंकि उनके हाथ में इन्द्रिय-रूपी घोड़ों की रासें रहती हैं। इसी अभिप्राय से उपनिषत् में यह कहा है कि “सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम्” वही पुरुष इस संसाररूपी मार्ग को तैर करके विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है, अन्य नहीं ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सोमरक्षण द्वारा प्रभु की वाणी का श्रवण

पदार्थान्वयभाषाः - [१] सोम का रक्षण करने पर यह सोमरक्षक पुरुष (अरममाणः) = संसार के विषयों में रममाण [फँसा हुआ] न होता हुआ (अति) = इन विषयों को लाँघकर (गाः अभि एति) = ज्ञान की वाणियों की ओर आता है। यह (सूर्स्य) = उस ज्ञानसूर्य प्रभु की (दुहितुः) = दुहितृभूत इस वेदवाणी के (प्रियम्) = अत्यन्त प्रिय (तिरः) = हृदय - मन्दिर में तिरोहित रूप से वर्तमान (रवम्) = शब्द को (अभि एति) = लक्ष्य करके गतिवाला होता है। इस सोमरक्षक पुरुष का लक्ष्य यह होता है कि यह हृदयस्थ प्रभु से उच्चारित हो रहे इस वेदवाणी के शब्दों को सुन सके। [२] (अस्मै) = इस शब्द के लिये ही यह (जोषम्) = प्रीतिपूर्वक उपासन को (अन्वभरत्) = अपने में भरनेवाला होता है । इस उपासना के द्वारा यह प्रभु के सान्निध्य को प्राप्त करके उन शब्दों को सुननेवाला होता है। इन शब्दों को सुननेवाला यह (विनंगृसः) = [विनं कमनीयं स्तोत्रं गृह्णाति इति सा० ] = स्तोता (द्वयीभिः) = प्रकृति व आत्मा को ज्ञान देनेवाली, अपरा व परा दो प्रकार की (जामिभिः) = हमारे जीवन में सद्गुणों को जन्म देनेवाली (स्वसृभिः) = आत्मतत्त्व की ओर ले जानेवाली वेदवाणियों से (संक्षेति) = संगत होता है [क्षि गतौ] ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण से सांसारिक विषयों में न फँसकर वेद वाणियों से संगत होते हैं ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अरममाणः) जितेन्द्रियः कर्मयोगी (गाः) इन्द्रियाणि (अत्येति) अतिक्रामति (सूर्यस्य प्रियं दुहितुः) रवेः प्रियाया उषसः (अभि) सम्मुखं (तिरः रवम्) शब्दायमानः सन् स्थिरो भवति। अथ च स कर्मयोगी (द्वयीभिः स्वसृभिः) एकेन मनसाऽऽविर्भावात्स्वसृभावं दधन्त्यौ कर्मयोगस्य द्वे वृत्ती (जामिभिः) ये युगलरूपेण वर्तमाने ताभ्यां (सङ्क्षेति) विचरति। (विनङ्गृसः) स्तोता (अस्मै) कर्मयोगिने (जोषम् अनु अभरत्) प्रीत्या संसेवते ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Bearing love and enthusiasm for this Soma, the devotee abides with both sister senses of perception and volition, but indifferent to sense experience and pleasure, he moves on to the sweet message of the dawn, daughter of the sun, and goes still beyond to bliss of the absolute divinity.