पदार्थान्वयभाषाः - [१] (इन्द्रस्य) = उस परमैश्वर्यवाले प्रभु के अत्यन्त प्रिय [परिप्रिय] (सोमम्) = सोम को (यदा) = जब (जठरे) = अपने अन्दर (आदुहुः) = [दुह प्रपूरणे] प्रपूरित करते हैं, तो (बहवः) = बहुत से (मनीषिणः) = बुद्धिमान् पुरुष (साकम्) = मिलकर (वदन्ति) = प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं। वस्तुतः एक परिवार में सभी मिलकर बैठें और प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करें तो घर का वातावरण बड़ा सुन्दर बनता है । इस वातावरण में ही वासनाओं से ऊपर उठे रहने के कारण सोमरक्षण का सम्भव होता है । [२] (यत्) = जब (ई) = निश्चय से (नरः) = मनुष्य (काम्यं मधु) = इस कमनीय [चाहने योग्य] सोम को (सनीडाभिः दशभि:) = इधर-उधर न भटकर अपने नियत कर्मों में एकाग्र [स-नीड] दस इन्द्रियों से (मृजन्ति) = शुद्ध करते हैं तो वे (सुगभस्तयः) = उत्तम ज्ञानरश्मियोंवाले होते हैं । इन्द्रियाँ जब इधर-उधर नहीं भटकतीं, तो यह सोम शुद्ध बना रहता है। यह शुद्ध सोम शरीर में सुरक्षित होकर ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है । ' गभस्ति' शब्द का अर्थ 'हाथ' भी है। ये सोमरक्षक पुरुष उत्तम हाथोंवाले होते हैं, अर्थात् सदा उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - सोम को सुरक्षित करने पर हमारी स्तुति की वृत्ति बनती है। इन्द्रियाँ नियत कर्मों में लगी रहकर एकाग्र बनी रहें तो सोम का रक्षण होता है और हम उत्तम ज्ञान- रश्मियोंवाले व उत्तम कर्मोंवाले होते हैं।