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स मृ॒ज्यमा॑नो द॒शभि॑: सु॒कर्म॑भि॒: प्र म॑ध्य॒मासु॑ मा॒तृषु॑ प्र॒मे सचा॑ । व्र॒तानि॑ पा॒नो अ॒मृत॑स्य॒ चारु॑ण उ॒भे नृ॒चक्षा॒ अनु॑ पश्यते॒ विशौ॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa mṛjyamāno daśabhiḥ sukarmabhiḥ pra madhyamāsu mātṛṣu prame sacā | vratāni pāno amṛtasya cāruṇa ubhe nṛcakṣā anu paśyate viśau ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः । मृ॒ज्यमा॑नः । द॒शऽभिः॑ । सु॒कर्म॑ऽभिः । प्र । म॒ध्य॒मासु॑ । मा॒तृषु॑ । प्र॒ऽमे । सचा॑ । व्र॒तानि॑ । पा॒नः । अ॒मृत॑स्य । चारु॑णः । उ॒भे इति॑ । नृ॒ऽचक्षाः॑ । अनु॑ । प॒श्य॒ते॒ । विशौ॑ ॥ ९.७०.४

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:70» मन्त्र:4 | अष्टक:7» अध्याय:2» वर्ग:23» मन्त्र:4 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:4


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मध्यमासु प्रमातृषु) ज्ञानेन्द्रियों में (प्रमे) प्रमाण के लिये (सचा) संगत (सः) वह परमात्मा (दशभिः कर्मभिः) पाँच सूक्ष्म भूत और पाँच स्थूलभूतों से (मृज्यमानः) विराट् रूप से अभिव्यक्ति को प्राप्त हुआ सर्वत्र विराजमान है। (व्रतानि पानः) व्रतों को धारण करनेवाला मनुष्य (चारुणोऽमृतस्य) सुन्दर अमृतभाव के देनेवाले (उभे विशौ) दोनों ज्ञान और कर्म जो हैं, उनको (नृचक्षाः) सर्वज्ञ पुरुष ही (अनुपश्यते) देखता है, अन्य नहीं ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष तपश्चर्यादि कर्मों को करता है, वही पुरुष ज्ञान तथा कर्म के प्रभाव से सर्वत्राभिव्यक्त परमात्मा को ज्ञानदृष्टि से देख सकता है, अन्य नहीं ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

मृज्यमानः दशभिः सुकर्मभिः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] सोम का रक्षण तभी होता है, जब कि सब की सब इन्द्रियाँ उत्तम कर्मों में ही लगी रहें । (सः) = वह सोम (दशभिः सुकर्मभिः) = [ शोभनं कर्म येषां ] उत्तम कर्मोंवाली दसों इन्द्रियों से (मृज्यमान:) = शुद्ध किया जाता है। यह सोम (सचा) = हमारे अन्दर समवेत होता हुआ, रुधिर में ही व्याप्त होता हुआ, (मध्यमासु) = [मध्ये वासु] हृदयदेश में निवास करनेवाली (मातृषु) = इन वेदरूप माताओं के होने पर (प्रमे) = [प्रमातुम्] वस्तुतत्त्व को जानने के लिये होता है, अर्थात् सोम हमें तत्त्वज्ञान को प्राप्त कराता है। [२] (अमृतस्य) = शरीर को रोगों का शिकार न होने देनेवाले [न मृतं यस्मात्] (चारुणः) = जीवन को सुन्दर बनानेवाले सोम के व्रतानि व्रतों को, सोमरक्षण के नियमों को (पानः) = रक्षित करता हुआ, उन सब नियमों का पालन करता हुआ (नृचक्षाः) = सब मनुष्यों का ध्यान करनेवाला यह व्यक्ति (उभे विशौ) = दोनों प्रजाओं को, भौतिक दृष्टिकोण से बलशाली तथा अध्यात्म दृष्टिकोण से दिव्यगुणोंवाली प्रजाओं को (अनुपश्यते) = अनुकूलता से देखता है । अर्थात् यह अपने जीवन में, गतमन्त्र के अनुसार 'नृम्णा देव्या' बलों व दिव्यगुणों दोनों को प्रेरित करता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- इन्द्रियाँ सुकर्मों में लगी रहें तो सोम पवित्र बना रहता है। यह पवित्र सोम हमें तत्त्वज्ञान प्राप्त कराता है । सोमी पुरुष सब मनुष्यों का ध्यान करता है तथा भौतिक व अध्यात्म दोनों जीवनों को सुन्दर बनाता है।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मध्यमासु प्रमातृषु) ज्ञानेन्द्रियेषु (प्रमे) प्रमाणार्थं (सचा) सङ्गतः (सः) असौ परमात्मा (दशभिः कर्मभिः) सूक्ष्मभूतैः पञ्चभिस्तथा पञ्चस्थूलभूतैः (मृज्यमानः) विराड्रूपेणाभिव्यक्तः   सर्वत्र विराजते (व्रतानि पानः) व्रतकर्ता जनः (चारुणोऽमृतस्य) शोभनामृतभावप्रदातृणी (उभे विशौ) ये द्वे ज्ञानकर्मणी ते (नृचक्षाः) सर्वज्ञ एव (अनुपश्यते) अवलोकयति नान्यः ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - He, blissful and watchful guardian of humanity both pious and impious, exalted by ten efficient senses and pranas and by ten holy observances of Dharma, who is pervasive in the midst of human faculties of perception and volition, awareness and understanding to watch and warn us, thereby strengthening and promoting the holy and immortal dharmic discipline of humanity, He watches at first hand what people do in thought, word and deed.