मृज्यमानः दशभिः सुकर्मभिः
पदार्थान्वयभाषाः - [१] सोम का रक्षण तभी होता है, जब कि सब की सब इन्द्रियाँ उत्तम कर्मों में ही लगी रहें । (सः) = वह सोम (दशभिः सुकर्मभिः) = [ शोभनं कर्म येषां ] उत्तम कर्मोंवाली दसों इन्द्रियों से (मृज्यमान:) = शुद्ध किया जाता है। यह सोम (सचा) = हमारे अन्दर समवेत होता हुआ, रुधिर में ही व्याप्त होता हुआ, (मध्यमासु) = [मध्ये वासु] हृदयदेश में निवास करनेवाली (मातृषु) = इन वेदरूप माताओं के होने पर (प्रमे) = [प्रमातुम्] वस्तुतत्त्व को जानने के लिये होता है, अर्थात् सोम हमें तत्त्वज्ञान को प्राप्त कराता है। [२] (अमृतस्य) = शरीर को रोगों का शिकार न होने देनेवाले [न मृतं यस्मात्] (चारुणः) = जीवन को सुन्दर बनानेवाले सोम के व्रतानि व्रतों को, सोमरक्षण के नियमों को (पानः) = रक्षित करता हुआ, उन सब नियमों का पालन करता हुआ (नृचक्षाः) = सब मनुष्यों का ध्यान करनेवाला यह व्यक्ति (उभे विशौ) = दोनों प्रजाओं को, भौतिक दृष्टिकोण से बलशाली तथा अध्यात्म दृष्टिकोण से दिव्यगुणोंवाली प्रजाओं को (अनुपश्यते) = अनुकूलता से देखता है । अर्थात् यह अपने जीवन में, गतमन्त्र के अनुसार 'नृम्णा देव्या' बलों व दिव्यगुणों दोनों को प्रेरित करता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- इन्द्रियाँ सुकर्मों में लगी रहें तो सोम पवित्र बना रहता है। यह पवित्र सोम हमें तत्त्वज्ञान प्राप्त कराता है । सोमी पुरुष सब मनुष्यों का ध्यान करता है तथा भौतिक व अध्यात्म दोनों जीवनों को सुन्दर बनाता है।