वांछित मन्त्र चुनें

उ॒क्षा मि॑माति॒ प्रति॑ यन्ति धे॒नवो॑ दे॒वस्य॑ दे॒वीरुप॑ यन्ति निष्कृ॒तम् । अत्य॑क्रमी॒दर्जु॑नं॒ वार॑म॒व्यय॒मत्कं॒ न नि॒क्तं परि॒ सोमो॑ अव्यत ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ukṣā mimāti prati yanti dhenavo devasya devīr upa yanti niṣkṛtam | aty akramīd arjunaṁ vāram avyayam atkaṁ na niktam pari somo avyata ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒क्षा । मि॒मा॒ति॒ । प्रति॑ । य॒न्ति॒ । धे॒नवः॑ । दे॒वस्य॑ । दे॒वीः । उप॑ । य॒न्ति॒ । निः॒ऽकृ॒तम् । अति॑ । अ॒क्र॒मी॒त् । अर्जु॑नम् । वार॑म् । अ॒व्यय॑म् । अत्क॑म् । न । नि॒क्तम् । परि॑ । सोमः॑ । अ॒व्य॒त॒ ॥ ९.६९.४

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:69» मन्त्र:4 | अष्टक:7» अध्याय:2» वर्ग:21» मन्त्र:4 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:4


0 बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उक्षा) ब्रह्मचर्य आदि बलसंपन्न पुरुष ही (मिमाति) सर्वज्ञाता हो सकता है। उस (निष्कृतं) परिष्कृत पुरुष को (धेनवः) इन्द्रियाँ (प्रति यन्ति) प्राप्त होती हैं। (देवस्य देवी) दिव्य परमात्मा की दिव्य शक्तियाँ (उप यन्ति) उसी को प्राप्त होती हैं। वही (अर्जुनं) बड़े-बड़े योद्धाओं को (अति अक्रमीत्) अतिक्रमण करता है। (वारं) उस सर्ववरणीय (अव्ययं) इन्द्रियविकाररहित (अत्कं न) कवच की तरह (निक्तं) यश से उज्ज्वल को (सोमः) परमात्मा (परि अव्यत) चारों ओर से रक्षा करता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष ब्रह्मचारी बनकर शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक तीनों प्रकार के बल अपने में उत्पन्न करता है, वह परमात्मा के सामर्थ्य का पात्र होता है ॥४॥
0 बार पढ़ा गया

हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अत्कं न निक्तम् [दृढ़ कवच के समान]

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (उक्षा) = शरीर को शक्ति से सिक्त करनेवाला (सोमः) = सोम (मिमाति) = प्रभु के स्तुति शब्दों का उच्चारण करता है । 'सोम' रक्षित होने पर, रक्षक को प्रभु प्रवण बनाता है। यह सोमी पुरुष प्रभु का स्तवन करता हुआ प्रभु के नामों का जप करता है। ऐसा करने पर (धेनवः) = ज्ञानदुग्ध को देनेवाली ये वेदवाणीरूप गौएँ (प्रतियन्ति) = इसकी ओर आती हैं। (देवस्य) = उस प्रभु की ये (देवी:) = दिव्य वाणियाँ (निष्कृतम्) = सोमरक्षण से संस्कृत हृदयवाले पुरुष को (उपयन्ति) = समीपता से प्राप्त होती हैं । [२] यह सोम (अर्जुनम्) = ज्ञान की वाणियों का अर्जन करनेवाले, (वराम्) = वासनाओं का निवारण करनेवाले, (अव्ययम्) = विविध विषयों की ओर न जानेवाले पुरुष को (अति अक्रमीत्) = अतिशयेन प्राप्त होता है । यह (सोमः निक्तम्) = सोम अत्यन्त शुद्ध व पुष्ट (अत्कं न) = कवच के समान (परि अव्यत) = अपने रक्षक को परितः संवृत कर लेता है। इस सोम के कवच से सुरक्षित पुरुष शारीर व मानस व्याधियाँ व आधियाँ आक्रमण नहीं कर पातीं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण से हमें प्रभु की दिव्य वाणियाँ प्राप्त होती हैं । यह सोम अध्ययनशील- विषय व्यावृत्त पुरुष का परिपुष्ट कवच बनता है। उसे रोगों से बचाता है।
0 बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उक्षा) ब्रह्मचर्यादिबलसम्पन्नः पुरुष एव (मिमाति) सर्वज्ञो भवति। तं (निष्कृतम्) परिष्कृतं पुरुषं (धेनवः) इन्द्रियाणि (प्रति यन्ति) प्राप्नुवन्ति  (देवस्य देवी) परमात्मनो दिव्यशक्तयः (उप यन्ति) तमेव प्राप्नुवन्ति। स परत्मात्मैव (अर्जुनम्) वीरयोद्धॄन् (अत्यक्रमीत्) अतिक्रामति। (वारम्) तं सर्ववरणीयम् (अव्ययम्) इन्द्रियविकारहितं (अत्कं न) वर्मेव (निक्तम्) यशसोज्वलं (सोमः) परमात्मा (परि अव्यत) परितो रक्षति ॥४॥
0 बार पढ़ा गया

डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The generous virile soul overflowing with soma joy vibrates with Infinity, the senses having returned inward like cows to the stall. The enlightened mind and thoughts of the holy soul unite with the hallowed centre of the spirit. The soul breaks through its existential cover, returns to its original imperishable purity, and Soma protects it as a pilgrim cleansed and redeemed.