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अव्ये॑ वधू॒युः प॑वते॒ परि॑ त्व॒चि श्र॑थ्नी॒ते न॒प्तीरदि॑तेॠ॒तं य॒ते । हरि॑रक्रान्यज॒तः सं॑य॒तो मदो॑ नृ॒म्णा शिशा॑नो महि॒षो न शो॑भते ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

avye vadhūyuḥ pavate pari tvaci śrathnīte naptīr aditer ṛtaṁ yate | harir akrān yajataḥ saṁyato mado nṛmṇā śiśāno mahiṣo na śobhate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अव्ये॑ । व॒धू॒ऽयुः । प॒व॒ते॒ । परि॑ । त्व॒चि । श्र॒थ्नी॒ते । न॒प्तीः । अदि॑तेः । ऋ॒तम् । य॒ते । हरिः॑ । अ॒क्रा॒न् । य॒ज॒तः । स॒म्ऽय॒तः । मदः॑ । नृ॒म्ना । शिशा॑नः । म॒हि॒षः । न । शो॒भ॒ते॒ ॥ ९.६९.३

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:69» मन्त्र:3 | अष्टक:7» अध्याय:2» वर्ग:21» मन्त्र:3 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वधूयुः) प्रकृति का स्वामी (हरिः) परमात्मा (अक्रान्) दुष्टों को अतिक्रमण करता है। (यजतः) याग करनेवाला जो (संयतः) संयमी पुरुष है, (मदः) उसको आह्लाद उत्पन्न करनेवाला है। (नृम्णा) बलस्वरूप है तथा (शिशानः) सर्वगत है (महिषः) और अत्यन्त तेजस्वी के (न) समान विराजमान है। वह परमात्मा (अदितेः) पृथिव्यादि तत्त्वों के (ऋतं यते) तत्त्वों को जाननेवाले पुरुष के लिए (अव्यः) जो रक्षा करनेवाला है, (त्वचि) उसके अन्तःकरण में (परि पवते) सब ओर से विराजमान होता है। तथा (नप्तीः) उनकी संततियों को (श्रथ्नीते) सफल करता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष संयमी बनकर निष्काम यज्ञ करते हैं, उन पुरुषों के लिए परमात्मा शुभ संतानों और शुभ फलों को उत्पन्न करता है ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'वधूयुः - हरिः - मदः ' सोमः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अव्ये) = अपना रक्षण करनेवाले उत्तम पुरुष में (वधूयुः) = हमारे साथ वेदवाणी रूप वधू को जोड़ने की कामनावाला यह सोम (त्वचि परिपवते) = [त्वच् = touch] प्रभु के सम्पर्क के निमित्त चारों ओर प्राप्त होता है सोम शरीर में व्याप्त होता है, तो यह हमारी बुद्धि को तीव्र करके हमारे साथ वेदज्ञान को जोड़ता है और हमें प्रभु प्राप्ति के योग्य बनाता है। [२] (ऋतंयते) = ऋत की ओर चलनेवाले पुरुष के लिये, सब कार्यों को ऋत के अनुसार करनेवाले के लिए, यह सोम (अदितेः) = उस अदीना देवमाता के (नप्ती:) = सन्तानों को (श्रथ्नीते) = हमारे साथ बाँधता है [ श्रन्थनं - binding] । यह वेदज्ञान ही अदीना देवमाता है। 'आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्' ये इसके सन्तान हैं। सोम इन सातों को हमारे साथ सम्बद्ध करता है, हमारे जीवन में इन्हें गूँथ देता है । [३] (हरिः) = यह सब रोगों का हरण करनेवाला सोम (अक्रान्) = हमारे शरीर में गति करता है । (यजतः) = यह सोम संगन्तव्य होता है। (संयतः) = शरीर में सम्यक् यत [काबू] हुआ हुआ (मदः) = उल्लास का जनक होता है । (नृभ्णा शिशानः) = हमारे बलों को तीक्ष्ण करता हुआ यह सोम (महिषः न) = अत्यन्त महनीय वस्तु के समान शोभते शोभा को प्राप्त होता है। सब से अधिक महनीय वस्तु सोम ही हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम हमारे साथ वेदज्ञान को जोड़ता है । वेदज्ञान द्वारा हमें 'आयु-प्राण-प्रजा' आदि रत्नों को प्राप्त कराता है। शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ यह उल्लास का जनक व शक्तिवर्धक होता है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वधूयुः) प्रकृतिस्वामी (हरिः) परमात्मा (अक्रान्) दुष्टानतिक्रामति। (यजतः संयतः) संयमिने यज्ञकर्त्रे (मदः)   आनन्ददायकोऽस्ति। (नृम्णा) बलस्वरूपस्तथा (शिशानः) सर्वगतोऽस्ति। तथा (महिषो न) अत्यन्ततेजस्वीव विराजितोऽस्ति। स परमात्मा (अदितेः) पृथिव्यादितत्त्वस्य (ऋतं यते) तत्त्वज्ञस्य (अव्ये) रक्षकोऽस्ति (त्वचि) तस्यान्तःकरणं (परि पवते) परितो विराजते। अथ च (नप्तीः) तेषां सन्ततीः (श्रथ्नीते) सफलयति ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The stream of soma joy flows in the protected heart of the dedicated celebrant, attenuates the extrovert natural tendencies of the mind and augments the inner concentration of the higher mind for the man of natural truth and divine law. And Hari, divine lord controller of agitation and dispeller of darkness, intensifies the controlled flow of the yogi’s joy in communion and, deepening and directing it on the fixed target, shines like a victor with divine strength and glory.