'वधूयुः - हरिः - मदः ' सोमः
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अव्ये) = अपना रक्षण करनेवाले उत्तम पुरुष में (वधूयुः) = हमारे साथ वेदवाणी रूप वधू को जोड़ने की कामनावाला यह सोम (त्वचि परिपवते) = [त्वच् = touch] प्रभु के सम्पर्क के निमित्त चारों ओर प्राप्त होता है सोम शरीर में व्याप्त होता है, तो यह हमारी बुद्धि को तीव्र करके हमारे साथ वेदज्ञान को जोड़ता है और हमें प्रभु प्राप्ति के योग्य बनाता है। [२] (ऋतंयते) = ऋत की ओर चलनेवाले पुरुष के लिये, सब कार्यों को ऋत के अनुसार करनेवाले के लिए, यह सोम (अदितेः) = उस अदीना देवमाता के (नप्ती:) = सन्तानों को (श्रथ्नीते) = हमारे साथ बाँधता है [ श्रन्थनं - binding] । यह वेदज्ञान ही अदीना देवमाता है। 'आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्' ये इसके सन्तान हैं। सोम इन सातों को हमारे साथ सम्बद्ध करता है, हमारे जीवन में इन्हें गूँथ देता है । [३] (हरिः) = यह सब रोगों का हरण करनेवाला सोम (अक्रान्) = हमारे शरीर में गति करता है । (यजतः) = यह सोम संगन्तव्य होता है। (संयतः) = शरीर में सम्यक् यत [काबू] हुआ हुआ (मदः) = उल्लास का जनक होता है । (नृभ्णा शिशानः) = हमारे बलों को तीक्ष्ण करता हुआ यह सोम (महिषः न) = अत्यन्त महनीय वस्तु के समान शोभते शोभा को प्राप्त होता है। सब से अधिक महनीय वस्तु सोम ही हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम हमारे साथ वेदज्ञान को जोड़ता है । वेदज्ञान द्वारा हमें 'आयु-प्राण-प्रजा' आदि रत्नों को प्राप्त कराता है। शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ यह उल्लास का जनक व शक्तिवर्धक होता है ।