पदार्थान्वयभाषाः - [१] (इन्दो) = हे सोम ! तू (बृहते) = वृद्धि [उन्नति] के मार्ग पर चलनेवाले (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (पवस्व) = प्राप्त हो । (सुमृडीकः) = तू उसके जीवन को सुखी करनेवाला हो । (अनवद्यः) = सब अवद्यों [पापों] से उसे ऊपर उठानेवाला हो [न अवद्यं यस्मात्] । (रिशादा:) = सब शत्रुओं का नष्ट करनेवाला हो [रिशतां असिता] । [२] (गृणते) = स्तुति करनेवाले के लिये (चन्द्राणि वसूनि) = आह्लादकर वसुओं को, निवास के लिये आवश्यक तत्त्वों को, (भरा) = तू प्राप्त करा । तेरे सुरक्षित होने पर (देवैः) = दिव्यगुणों से युक्त हुए हुए [प्रकाश व दृढ़ता युक्त हुए हुए] द्यावापृथिवी द्युलोक और पृथिवीलोक, मस्तिष्क व शरीर (नः) = हमारा (प्रावतम्) = प्रकर्षेण रक्षण करें। सुरक्षित सोम मस्तिष्क को दीप्त बनाता है और शरीर को दृढ़ करता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें निष्पाप व सुखी बनाता है। ये हमें आह्लादकारक वसुओं को प्राप्त कराता है । मस्तिष्क को दीप्त व शरीर को दृढ़ करता है । यह सोमरक्षक पुरुष निर्दोष जीवनवाला बनकर गतिशील व सबके साथ मिलकर चलनेवाला बनता है, सो 'रेणु' कहलाता है [री-गति, आलिंगन] यह सबके प्रति स्नेहवाला होने से 'वैश्वामित्र: ' है । इसीका अगला सूक्त है । यह सोम का प्रशंसन करता हुआ कहता है-