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इन्द॒विन्द्रा॑य बृह॒ते प॑वस्व सुमृळी॒को अ॑नव॒द्यो रि॒शादा॑: । भरा॑ च॒न्द्राणि॑ गृण॒ते वसू॑नि दे॒वैर्द्या॑वापृथिवी॒ प्राव॑तं नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indav indrāya bṛhate pavasva sumṛḻīko anavadyo riśādāḥ | bharā candrāṇi gṛṇate vasūni devair dyāvāpṛthivī prāvataṁ naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्दो॒ इति॑ । इन्द्रा॑य । बृ॒ह॒ते । प॒व॒स्व॒ । सु॒ऽमृ॒ळी॒कः । अ॒न॒व॒द्यः । रि॒शादाः॑ । भर॑ । च॒न्द्राणि॑ । गृ॒ण॒ते । वसू॑नि । दे॒वैः । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । प्र । अ॒व॒त॒म् । नः॒ ॥ ९.६९.१०

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:69» मन्त्र:10 | अष्टक:7» अध्याय:2» वर्ग:22» मन्त्र:5 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:10


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दो) ऐश्वर्यसंपन्न परमात्मन् ! (सुमृळीकः) कर्मयोगी को सुख देनेवाले (अनवद्यः) निन्दारहित (रिशादाः) बाधकों के नाशक आप (इन्द्राय) कर्मयोगी के लिए (पवस्व) पवित्रता प्रदान करें और (गृणते) स्तुति करनेवाले कर्मयोगी के लिए (चन्द्राणि) आह्लाद देनेवाले (वसूनि) धनों को (भर) प्रदान करें। आप (देवैः) दिव्य धनों के सहित (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक को (नः) हम लोगों के लिए (प्र अवतं) प्राप्त कराएँ ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में कर्मयोगी के लिए ऐश्वर्यप्रदान का वर्णन किया गया है ॥१०॥ यह ६९ वाँ सूक्त और २२ वाँ वर्ग समाप्त हुआ।
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सुमृडीकः अनवद्यः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (इन्दो) = हे सोम ! तू (बृहते) = वृद्धि [उन्नति] के मार्ग पर चलनेवाले (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (पवस्व) = प्राप्त हो । (सुमृडीकः) = तू उसके जीवन को सुखी करनेवाला हो । (अनवद्यः) = सब अवद्यों [पापों] से उसे ऊपर उठानेवाला हो [न अवद्यं यस्मात्] । (रिशादा:) = सब शत्रुओं का नष्ट करनेवाला हो [रिशतां असिता] । [२] (गृणते) = स्तुति करनेवाले के लिये (चन्द्राणि वसूनि) = आह्लादकर वसुओं को, निवास के लिये आवश्यक तत्त्वों को, (भरा) = तू प्राप्त करा । तेरे सुरक्षित होने पर (देवैः) = दिव्यगुणों से युक्त हुए हुए [प्रकाश व दृढ़ता युक्त हुए हुए] द्यावापृथिवी द्युलोक और पृथिवीलोक, मस्तिष्क व शरीर (नः) = हमारा (प्रावतम्) = प्रकर्षेण रक्षण करें। सुरक्षित सोम मस्तिष्क को दीप्त बनाता है और शरीर को दृढ़ करता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें निष्पाप व सुखी बनाता है। ये हमें आह्लादकारक वसुओं को प्राप्त कराता है । मस्तिष्क को दीप्त व शरीर को दृढ़ करता है । यह सोमरक्षक पुरुष निर्दोष जीवनवाला बनकर गतिशील व सबके साथ मिलकर चलनेवाला बनता है, सो 'रेणु' कहलाता है [री-गति, आलिंगन] यह सबके प्रति स्नेहवाला होने से 'वैश्वामित्र: ' है । इसीका अगला सूक्त है । यह सोम का प्रशंसन करता हुआ कहता है-
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दो) ऐश्वर्यसम्पन्न परमात्मन् ! (सुमृळीकः) कर्मयोगिसुखदः (अनवद्यः) निन्दारहितः (रिशादाः) बाधकनाशकस्त्वं (इन्द्राय) कर्मयोगिने (पवस्व) पवित्रतां देहि। अथ च (गृणते) स्तोत्रे कर्मयोगिने (चन्द्राणि) आह्लादकानि (वसूनि) धनानि (भर) प्रददस्व। भवान् (देवैः) दिव्यधनयुते (द्यावापृथिवी) द्यावाभूमी (नः) अस्मभ्यं (प्रावतम्) प्रापयतु ॥१०॥ इत्येकोनसप्ततितमं सूक्तं द्वाविंशो वर्गश्च समाप्तः।
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O lord of peace, beauty and joy, giver of happiness and well being, adorable divinity, destroyer of violence, enemies and impediments, flow for the great Indra, for the glory of the karma-yogi. Bring the beauties of wealth, settlement and security, honour and excellence of life for the celebrant. O heaven and earth, come along with the divinities of nature and humanity and protect and promote us with happiness and well being.