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स रोरु॑वद॒भि पूर्वा॑ अचिक्रददुपा॒रुह॑: श्र॒थय॑न्त्स्वादते॒ हरि॑: । ति॒रः प॒वित्रं॑ परि॒यन्नु॒रु ज्रयो॒ नि शर्या॑णि दधते दे॒व आ वर॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa roruvad abhi pūrvā acikradad upāruhaḥ śrathayan svādate hariḥ | tiraḥ pavitram pariyann uru jrayo ni śaryāṇi dadhate deva ā varam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः । रोरु॑वत् । अ॒भि । पूर्वाः॑ । अ॒चि॒क्र॒द॒त् । उ॒प॒ऽआ॒रुहः॑ । श्र॒थय॑न् । स्वा॒द॒ते॒ । हरिः॑ । ति॒रः । प॒वित्र॑म् । प॒रि॒ऽयन् । उ॒रु । ज्रयः॑ । नि । शर्या॑णि । द॒ध॒ते॒ । दे॒वः । आ । वर॑म् ॥ ९.६८.२

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:68» मन्त्र:2 | अष्टक:7» अध्याय:2» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (हरिः) दुर्गुण दूर करनेवाला (उपारुहः) उन्नतिशील (सः) पूर्वोक्त विद्वान् (रोरुवत्) बलपूर्वक उपदेश करता हुआ तथा (श्रथयन्) सत्यानृत का विभेद करता हुआ जिज्ञासु को (स्वादते) संस्कारी बनाता है और (पूर्वाः) अन्नादिसिद्ध परमात्मा की स्तुति को (अभि अचिक्रदत्) विशाल करता है और (देवः) दिव्यगुणयुक्त विद्वान् (शर्याणि) अज्ञानों का (तिरः) तिरस्कार करके (पवित्रं) पवित्र ज्ञान को (परियन्) प्रकाश करते हुए (उरु) बड़े (ज्रयः) कर्मयोगी को (निदधते) धारण कराता है। तथा (वरं) वरणीय पदार्थ को (आदधते) देता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - सदुपदेश द्वारा अज्ञानों को निवृत्त करना पूर्ण विद्वान् का ही काम है। पूर्ण विद्वान् के उपदेश से मनुष्य ज्ञानी और विद्वानी बनकर मनुष्यजन्म के फल को उपलब्ध करता है ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

स्तवन व स्वाध्याय द्वारा सोमरक्षण

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (सः) = वह सोमरक्षक पुरुष (रोरुवत्) = खूब ही प्रभु के नामों का उच्चारण करता है । (पूर्वा:) = सृष्टि के प्रारम्भ में दी जानेवाली इन वेदवाणियों का (अभि अचिक्रदत्) = आभिमुख्येन आह्वान करता है, उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । प्रभु-स्तवन व स्वाध्याय द्वारा सोमरक्षण करनेवाले इस व्यक्ति के लिये (हरिः) = यह दुःखों का हरण करनेवाला सोम (उपारुहः) = हमारे पर आरूढ़ हो जानेवाले आसुरभावों को (श्रथयन्) = ढीला करता हुआ (स्वादते) = हमारे जीवनों को मधुर बनाता है । [२] (पवित्रम्) = पवित्र हृदयवाले पुरुष को (तिरः परियन्) = तिरोहितरूप में रुधिर के साथ चारों ओर प्राप्त होता हुआ, (उरुज्रयः) = महान् विजयी बलवाला [ज्रि To overcome] (शर्याणि) = हिंसितव्यभावों को (निदधते) = नीचे धारण करता है, [न्यङ्करोति हिमस्ति सा० ] पाँव तले कुचलता है । और (देवः) = यह प्रकाशमय सोम (वरम्) = वरणीय श्रेष्ठभावों को (आदधते) = समन्तात् धारण करता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- जब स्तवन व स्वाध्याय से हम सोमरक्षण करते हैं, यह हमारे जीवनों को मधुर बनाता है, हमारे दुर्भावों को दूर करता है, और शुभभावों को सर्वतः विस्तृत करता है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (हरिः) अपगुणापहारकः (उपारुहः) उन्नतिशीलः (सः) पूर्वोक्तविद्वान् (रोरुवत्) बलपूर्वकमुपदिशन् तथा (श्रथयन्) सत्यासत्यं विभेदयन् जिज्ञासुं (स्वादते) संस्करोति। अथ च (पूर्वाः) अनादिसिद्धपरमेश्वरस्तुतिं (अभ्यचिक्रदत्) विशालयति। तथा (देवः) दिव्यगुणो विद्वान् (शर्याणि) अज्ञानानि (तिरः) तिरस्कृत्य (पवित्रम्) शुद्धज्ञानं (परियन्) प्रकाशयन् (उर) महान्तं (ज्रयः) कर्मयोगिनं (निदधते) धारयति। अथ च (वरम्) वरणीयपदार्थं (आदधते) आददातीति यावत् ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - He, eternal preceptor, refulgent dispeller of want and darkness, instant, transcendent, omniscient and eloquent master of the eternal voice, feels delighted with the rising seekers and, accepting and inspiring them, removes all superfluities and impediments, reveals and releases the soma of higher joy of knowledge and thus grants them the sacred boon they desire.