गि॒रा जा॒त इ॒ह स्तु॒त इन्दु॒रिन्द्रा॑य धीयते । विर्योना॑ वस॒तावि॑व ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
मन्त्र उच्चारण
girā jāta iha stuta indur indrāya dhīyate | vir yonā vasatāv iva ||
पद पाठ
गि॒रा । जा॒तः । इ॒ह । स्तु॒तः । इन्दुः॑ । इन्द्रा॑य । धी॒य॒ते॒ । विः । योना॑ । व॒स॒तौऽइ॑व ॥ ९.६२.१५
ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:62» मन्त्र:15
| अष्टक:7» अध्याय:1» वर्ग:26» मन्त्र:5
| मण्डल:9» अनुवाक:3» मन्त्र:15
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (विः वसतौ इव) “विरिति शकुनिनाम वेतेर्गतिकर्मणः, अथापि इषुनामेह भवत्येतस्मादेव” नि० अ० २।६। जिस प्रकार शत्रु से रक्षा के लिये बाण ज्या में स्थापित किया जाता है, उसी प्रकार (इह जातः इन्दुः) इस लोक में सब ऐश्वर्य को प्राप्त सेनापति (गिरा स्तुतः) सबकी वाणियों द्वारा स्तुत (इन्द्राय) रक्षा करने से निर्भीक होने के लिये (योना धीयते) उच्च पद पर स्थापित किया जाता है ॥१५॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार शस्त्र अपने नियत स्थानों में स्थित होकर राजधर्म की रक्षा करते हैं, इसी प्रकार सेनापति अपने पद पर स्थिर होकर राजधर्म की रक्षा करता है ॥१५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार
विः वसतौ इव
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (गिरा) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा (इह) = इस शरीर में ही (जातः) = प्रादुर्भूत हुआ हुआ (स्तुतः) = गुणों से स्तवन किया गया यह (इन्दुः) = सोम (इन्द्राय) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (योनौ) = सब के मूल उत्पत्ति-स्थान प्रभु में (धीयते) = धारण किया जाता है। जब मनुष्य स्वाध्याय में लगा हुआ इन ज्ञान की वाणियों का ग्रहण करता है, तो यह सोम का रक्षण कर पाता है। इसीलिए सोम को 'गिरा जातः' कहा है । जितेन्द्रिय पुरुष इसके द्वारा प्रभु को प्राप्त करनेवाला बनता है। [२] यह सोम प्रभु में इस प्रकार धारण किया जाता है (इव) = जैसे कि (विः) = एक पक्षी (वसतौ) = अपने निवास स्थानभूत घोंसलें में स्थापित होता है । यह सोमरक्षण करनेवाला पुरुष ही मानो पक्षी है, प्रभु इसका घोंसला बनते हैं। यही ब्रह्म-निष्ठता है एवं सोमी पुरुष ब्रह्मनिष्ठ होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - स्वाध्याय में लगे रहने से हम सोम का धारण करते हैं। सोम हमें प्रभु में धारित करता है । धीयते । वियो॑ना॒ वस॒ताव॑व ।। १५॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (विः वसतौ इव) “विरिति शकुनिनाम वेतेर्गतिकर्मणः, अथापि इषुनामेह भवत्येतस्मादेव” नि० अ० २।६। यथा शत्रुत आत्मरक्षणाय बाणो ज्यायां स्थाप्यते तथैव (इह जातः इन्दुः) अस्मिन्लोके सर्वैश्वर्यतां प्राप्तः सेनापतिः (गिरा स्तुतः) सर्वजनवाचा स्तुतः (इन्द्राय) रक्षानिर्भीकतायै (याना धीयते) उच्चपदोपरि प्रतिष्ठितः क्रियते ॥१५॥
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डॉ. तुलसी राम
पदार्थान्वयभाषाः - Indra, the best man of supreme spirit and power of light, peace and bliss, bom and raised here in the social order, initiated, admired and confirmed by the voice of the land is appointed in place and position of authority for a purpose like an arrow fixed on the bow for a target.
