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अर्षा॑ णः सोम॒ शं गवे॑ धु॒क्षस्व॑ पि॒प्युषी॒मिष॑म् । वर्धा॑ समु॒द्रमु॒क्थ्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

arṣā ṇaḥ soma śaṁ gave dhukṣasva pipyuṣīm iṣam | vardhā samudram ukthyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अर्ष॑ । नः॒ । सो॒म॒ । शम् । गवे॑ । धु॒क्षस्व॑ । पि॒प्युषी॑म् । इष॑म् । वर्ध॑ । स॒मु॒द्रम् । उ॒क्थ्य॑म् ॥ ९.६१.१५

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:61» मन्त्र:15 | अष्टक:7» अध्याय:1» वर्ग:20» मन्त्र:5 | मण्डल:9» अनुवाक:3» मन्त्र:15


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सोम) हे कर्मयोगिन् ! आप (नः) हमारी (गवे) वाणी के लिये (शम् अर्ष) सुख को बढ़ाइये (पिप्युषीम् क्षुधस्व) और तृप्ति करने में पर्याप्त अन्नादि पदार्थों को उत्पन्न करिये (समुद्रम् उक्थ्यम् वर्ध) समुद्र के समान अचल ऐश्वर्य को बढ़ाइये ॥१५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! यदि आप ऐश्वर्य को बढ़ाना चाहते हैं, तो कर्मयोगियों से प्रार्थना करके उद्योगी बनिये ॥१५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'शं गवे'

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू (नः अर्ष) = हमें प्राप्त हो। हमें प्राप्त होकर (गवे शम्) = हमारी इन्द्रियों के लिये शान्ति का देनेवाला हो। तू हमारे अन्दर (पिप्युषीम्) = हमारा सब प्रकार से आप्यायन करनेवाली (इषम्) = प्रेरणा को (धुक्षस्व) = प्रपूरित कर तेरे रक्षण से हम प्रभु की उस प्रेरणा को सुननेवाले बनें, जो कि सब प्रकार से हमारा वर्धन करती है। [२] हे सोम ! तू हमारे अन्दर (उक्थ्यम्) = अत्यन्त प्रशंसनीय (समुद्रम्) = ज्ञान के समुद्र को वर्धा बढ़ानेवाला हो। सोमरक्षण से ज्ञानाग्नि दीप्त होती है और इस प्रकार ज्ञान की वृद्धि होती है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-सोमरक्षण के तीन लाभ हैं - [क] सब इन्द्रियाँ अविकृत व शान्त होती हैं, [ख] प्रभु की प्रेरणा सुनाई पड़ती है, [ग] ज्ञान की वृद्धि होती है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सोम) हे कर्मयोगिन् ! त्वं (नः) अस्माकं (गवे) वाण्यै (शम् अर्ष) सुखं वर्धय। (पिप्युषीम् इषम् धुक्षस्व) अथ च तृप्तये अन्नादिपदार्थानुत्पादय (समुद्रम् उक्थ्यम् वर्ध) समुद्र इवाचलैश्वर्यान् वर्धय ॥१५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Soma, peaceable mling powers of the world, rise, move forward and create conditions of peace and progress for the earth, work for nature, animal wealth and environment, advance human culture, create nourishing food and productive energy for comfort and common good and, thus, exalt the grace and glory of human life, rolling like the infinite ocean.