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तनू॒नपा॒त्पव॑मान॒: शृङ्गे॒ शिशा॑नो अर्षति । अ॒न्तरि॑क्षेण॒ रार॑जत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tanūnapāt pavamānaḥ śṛṅge śiśāno arṣati | antarikṣeṇa rārajat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तनू॒३॒॑नपा॑त् । पव॑मानः । शृङ्गे॒ इति॑ । शिशा॑नः । अ॒र्ष॒ति॒ । अ॒न्तरि॑क्षेण । रार॑जत् ॥ ९.५.२

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:5» मन्त्र:2 | अष्टक:6» अध्याय:7» वर्ग:24» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (तनूनपात्) तनूं न पातयतीति अर्थात् जो सब शरीरों को अधिकरणरूप से धारण करे, उसका नाम यहाँ तनूनपात् है, वह परमात्मा (पवमानः) सबको पवित्र करनेवाला है (शृङ्गे शिशानः) जो कूटस्थनित्य है और (अर्षति) सर्वत्र व्याप्त है और (अन्तरिक्षेण रारजत्) जो द्युलोक और पृथिवीलोक के अधिकरणरूप से विराजमान हो रहा है, वह परमात्मा हमको पवित्र करे ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा को क्षेत्रज्ञरूप से वर्णन किया गया है अर्थात् प्रकृति तथा प्रकृति के कार्य पदार्थों में परमात्मा कूटस्थरूपता से विराजमान है, इस भाव को उपनिषदों में यों वर्णन किया है कि “यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्यामन्तरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरम्” बृ. ३।७।१ जो परमात्मा पृथिवी में रहता है और पृथिवी जिसको नहीं जानती तथा पृथिवी उसका शरीर है और वह शरीरीरूप से वर्तमान है। शरीर के अर्थ यहाँ शीर्यते इति शरीरम् जो शीर्णता अर्थात् नाश को प्राप्त हो, उसको शरीर कहते हैं। परमात्मा जीव के समान शरीर-शरीरी भाव को धारण नहीं करता, किन्तु साक्षीरूप से सर्व शरीरों में विद्यमान है, भोक्तारूप से नहीं, इसी अभिप्राय से “सम्भोगप्राप्तिरिति चेन्न वैशेष्यात्” १।२।८ ब्रह्मसूत्र में यह वर्णन किया है कि परमात्मा भोक्ता नहीं, क्योंकि वह सब शरीरों में विशेषरूप से व्यापक है और गीता में ‘क्षेत्रज्ञमपि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत’ इस श्लोक में इस भाव को भली-भाँति वर्णन किया है कि सब क्षेत्ररूपी शरीरों में क्षेत्रज्ञ परमात्मा है। मालूम होता है कि गीता उपनिषद् तथा ब्रह्मसूत्रों में यह भाव इत्यादि पूर्वोक्त मन्त्रों से आया है ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'तनूनपात्' सोम

पदार्थान्वयभाषाः - [१] यह सोम गत मन्त्र के अनुसार 'विश्वतस्पति' होता हुआ (तनूनपात्) = शरीर को गिरने नहीं देता । शरीर की शक्तियों के रक्षण का यह साधन बनता है। (पवमानः) = हृदय को पवित्र करता है। (शृंगे) = [दीप्ते उन्नतप्रदेशे सा० ] शरीर के सर्वोन्नत प्रदेश मूर्धा [मस्तिष्क] में (शिशानः) = [शो तनूकरणे] ज्ञान को दीप्त करता हुआ [बुद्धि को सूक्ष्म बनाता हुआ] (अर्षति) = यह गति करता है । [२] (अन्तरिक्षेण) = हृदयदेश से (राजत्) = [ To be delighted] खूब आनन्द का यह अनुभव करता है। सुरक्षित हुआ हुआ सोम हमारे उल्लास का कारण बनता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम शरीर के लिये 'तनूनपात्' है। यह मन के लिये 'पवमान व राजत्' है। मस्तिष्क के लिये 'शिशान' है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (तनूनपात्) सर्वशरीराणामधिकरणरूपेण धारकः (पवमानः) सर्वेषां पावयिताऽस्ति (शृङ्गे शिशानः) यो हि कूटस्थनित्योऽस्ति तथा (अर्षति) सर्वं व्याप्य तिष्ठति (अन्तरिक्षेण रारजत्) यश्च द्यावापृथिव्योरधिकरणरूपेण विराजते, स नः पुनातु ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Pavamana, lord pure and purifying, self- manifested, unfallen, infallible and imperishable, blazing on top of all, exists and operates, illuminating and glorifying the heaven and beautifying the earth.