शु॒म्भमा॑न ऋता॒युभि॑र्मृ॒ज्यमा॑नो॒ गभ॑स्त्योः । पव॑ते॒ वारे॑ अ॒व्यये॑ ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
मन्त्र उच्चारण
śumbhamāna ṛtāyubhir mṛjyamāno gabhastyoḥ | pavate vāre avyaye ||
पद पाठ
शु॒म्भमा॑नः । ऋ॒त॒युऽभिः॑ । मृ॒ज्यमा॑नः । गभ॑स्त्योः । पव॑ते । वारे॑ । अ॒व्यये॑ ॥ ९.३६.४
ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:36» मन्त्र:4
| अष्टक:6» अध्याय:8» वर्ग:26» मन्त्र:4
| मण्डल:9» अनुवाक:2» मन्त्र:4
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! आप (ऋतायुभिः) सत्य को चाहनेवाले विद्वानों से (गभस्त्योः) अपनी शक्तियों द्वारा स्थित होते हुए (मृज्यमानः) उपास्य हो (शुम्भमानः) सर्वोपरि शोभा को प्राप्त होते हुए (अव्यये वारे पवते) अपने उपासकों के लिये अव्यय मुक्ति पद प्रदान करते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष शुभ काम करते हुए श्रवण मनन निदिध्यासनादि साधनों में युक्त रहते हैं, वे मुक्ति पद के अधिकारी होते हैं ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार
ऋतायुभिः शुम्भमानः
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (ऋतायुभिः) = ऋत का आचरण करनेवालों से (शुम्भमानः) = शरीर में ही अलंकृत किया जाता हुआ यह सोम (गभस्त्योः) = बाहुवों में (मृज्यमानः) = शुद्ध किया जाता है। भुजाओं से सदा कर्मों को करते हुए हम इस सोम को पवित्र बनाये रखते हैं । [२] यह सोम उसे (अव्यये वारे) = कभी नष्ट न होनेवाले वरणीय प्रभु के निमित्त (पवते) = हमें प्राप्त होता है। इस सोम के रक्षण के द्वारा हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - ऋत को अपनाने से सोम शरीर में ही सुरक्षित रहता है। अनृत ही इसके विनाश का कारण बनता है। कर्मशीलता से यह पवित्र बना रहता है। हमें पवित्र बनाकर यह प्रभु को प्राप्त कराता है।
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! भवान् (ऋतायुभिः) सत्यप्रियैर्विद्वद्भिः (गभस्त्योः) स्वशक्तिभिः स्थितः (मृज्यमानः) उपास्यो भवति किञ्च (शुम्भमानः) अत्यर्थं शोभमानः (अव्यये वारे पवते) स्वभक्तेभ्यः अविनाशिमुक्तिपदं ददाति ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम
पदार्थान्वयभाषाः - Glorious Soma, eternal divine light and energy of the universe, adored and glorified by the lovers of truth, natural law and creative yajna for universal social causes, flows ceaselessly and constantly in the imperishable circuit of its own light and supremacy in the cosmos.
