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स॒त्यमु॑ग्रस्य बृह॒तः सं स्र॑वन्ति संस्र॒वाः । सं य॑न्ति र॒सिनो॒ रसा॑: पुना॒नो ब्रह्म॑णा हर॒ इन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

satyamugrasya bṛhataḥ saṁ sravanti saṁsravāḥ | saṁ yanti rasino rasāḥ punāno brahmaṇā hara indrāyendo pari srava ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒त्यम्ऽउ॑ग्रस्य । बृ॒ह॒तः । सम् । स्र॒व॒न्ति॒ । स॒म्ऽस्र॒वाः । सम् । य॒न्ति॒ । र॒सिनः॑ । रसाः॑ । पु॒ना॒नः । ब्रह्म॑णा । ह॒रे॒ । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥ ९.११३.५

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:113» मन्त्र:5 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:26» मन्त्र:5 | मण्डल:9» अनुवाक:7» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उग्रस्य, सत्यं, बृहतः) संग्राम में सत्यता होने से बढ़े हुए जिस पुरुष के (संस्रवाः) सत्यरूप स्रोत से अनेक सत्य के प्रवाह से (संस्रवन्ति) बह रहे हैं, (रसिनः) रसिक पुरुषों के (रसाः) रस (सं, यन्ति) जिसको भली-भाँति प्राप्त होते हैं, (ब्रह्मणा) वेदवेत्ता विद्वान् से (पुनानः) जो पवित्र किया गया है, (इन्द्राय) ऐसे राजा के लिये (हरे) हे हरणशील (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप (परि, स्रव) राज्याभिषेक का निमित्त बनें ॥५॥
भावार्थभाषाः - वेदवेत्ता विद्वान् से शिक्षा पाया हुआ जो राजा अपने सत्यादि धर्मों का त्याग नहीं करता, उसका राज्य अवश्यमेव चिरस्थायी होता और वह सांसारिक अनेक रसों का भोक्ता होता है ॥५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'सत्यमुग्र बृहत्' सोम

पदार्थान्वयभाषाः - [सत्यं यथार्थभूतं उदूर्णं बलं यस्य] (सत्यमुग्रस्य) = यथार्थभूत उद्गूर्ण [अवृद्ध] बल वाले, (बृहतः) = वृद्धि के कारणभूत सोम के (संस्रवः) = प्रवाह (संस्रवन्ति) = शरीर में सम्यक् स्तुत होते हैं । (रसिन:) = जीवन में रस का सञ्चार करनेवाले इस सोम के (रसाः) = रस [आनन्द] (संयन्ति) = हमें प्राप्त होते हैं। सुरक्षित सोम 'बल, वृद्धि व रस' का हेतु होता है । हे (हरे) = सब दुःखों का हरण करनेवाले (इन्दो) = सोम ! तू (ब्रह्मणा) = ज्ञान की वाणियों द्वारा (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (परिस्रव) = शरीर में चारों ओर परिस्रुत हो ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- 'स्वाध्याय द्वारा ज्ञान प्राप्ति में लगना' सोम की पवित्रता का जनक होता है। पवित्र सोम 'बल, वृद्धि व रस' का साधक होता है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सत्यमुग्रस्य, बृहतः)  संग्रामे सत्याश्रयणान्महतः  यस्य  पुरुषस्य (संस्रवाः) सत्यतास्रोतसा  बहूनि  स्रोतांसि  (संस्रवन्ति)  स्यन्दन्ते (रसिनः) रसिकस्य (रसाः) रसाः  (सं, यन्ति) ये साधु  प्राप्नुवन्ति (ब्रह्मणा) वेदवेत्रा यः (पुनानः) पावितः (हरे) हे हरणशील ! (इन्दो) प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (इन्द्राय)  ईदृशे राज्ञे  (परि, स्रव) अभिषेकहेतुर्भव ॥५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Together and in truth flow the laws of infinite potent majesty. Beauties and graces of gracious blissful divinity flow together delicious sweet. O Indu, saviour spirit of beauty and joy, purified and energised by the spirit of Infinity, flow for the sake of Indra, ruling soul of the system in the service of divinity.