पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) = वीर्य! (सः) = वह तू (पवस्व) = हमें प्राप्त हो । (पृतन्यून्) = आक्रान्त शत्रुओं को (सहमान:) = कुचलता हुआ, तू (दुर्गहाणि) = जिनका निग्रह बड़ा कठिन है, ऐसे (रक्षांसि) = राक्षसी भावों को (अपसेधन्) = हमारे से दूर भगाता है। (स्वायुधः) = तू इस जीवन संग्राम के 'इन्द्रिय, मन व बुद्धि' रूप उत्तम आयुधों वाला है। इन आयुधों के द्वारा तू (शत्रून्) = काम-क्रोध व लोभ रूप शत्रुओं को (सासह्वान्) = खूब ही कुचल डालता है। प्रशस्त इन्द्रियाँ काम के वशीभूत नहीं होती। निर्मल मन को क्रोध अशान्त नहीं कर पाता तथा तीक्ष्ण बुद्धि लोभ का शिकार नहीं हो जाती ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-सोम हमें प्राप्त होता है तो हमारे शत्रुओं को कुचल डालता है । 'इन्द्रिय, मन व बुद्धि' रूप आयुधों को प्रशस्त बनाता है उत्तम आयुधों वाला यह पुरुष 'अनानत' होता है, शत्रुओं से नत नहीं किया जाता। तथा सोमरक्षण के द्वारा अंग-प्रत्यंग में, पर्व- पर्व में शक्ति वाला 'पारुच्छेपि' बनता है। यह सोम शंसन करता हुआ कहता है-